सुख का सपना जिससे मिलकर ले लेता है दुख की करवट
दर्द तुम्हारी अंगनाई के हम ही हैं बेटे इकलौते
परिचय के धागों ने बुनकर कोई आकॄति नहीं बनाई
साथ न इक पग चली हमारे पथ में अपनी ही परछाईं
घट भर भर कर झुलसी हुई हवायें भेजा करता मधुबन
इन राहों से रही अपैरिचित, गंध भरी कोमल पुरबाई
अभिलाषा की लिखी इबारत बिखर गई,हो अक्षर अक्षर
टूट गये सांसों ने जितने किये आस्था से समझौते
पतझड़ के पत्तों सा उड़ता रहा हवा में मन वैरागी
लगा न टुकड़ा इक बादल का गले कभी बन कर अनुरागी
बुझी राख से रँगे गये हैं चित्र टँगे जो दीवारों पे
सोती वापस साथ भोर के ऊषा एक निमिष भर जागी
अपनेपन की चादर ओढ़े जो मरीचिका बन कर आये
भ्रम ने घूँघट खोल बताया, ये थे सारे झूठे न्यौते
खिलती हुई धूप के सँग आ पीड़ाओं ने पंथ बुहारे
कांटे वन्दनवार बन गये, रहे सजाते देहरी द्वारे
पाथेयों की परिभाषायें संध्या के नीड़ों में खोई
चन्दा की चादर को ओढ़े मिले महज जलते अंगारे
साधों के करघे पर जब भी बुनी कोई दोशाला हमने
और उतारा तो फिर पाया सारे धागे ज्यों के त्यों थे
रांगोली रचती आंखों में उड़ती हुई डगर की धूलें
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये खड़ी रहीं जो की थीं भूलें
कतरा कर निकले गलियों से स्पर्श हवाओं की गंधों के
अपनेपन के अहसासों से हुआ नहीं आकर के छू लें
गंगा रही कठौती में भी गाथाओं में सुना हुआ था
रहे हमारे अभिलाषा के जल से वंचित किन्तु कठौते
आशंका की घिर कर आई सांझ सवेरे रह रह बदरी
जागी आंखों के सपनों में उलझी रही सदा दोपहरी
आर्त स्वरों से सजे थाल की पूजा ठुकरा दी देवों ने
असमंजस के चौराहे पर अटकी रही प्रगति जो ठहरी
टीका करती रहीं शीश पर दहलीजों पर उगीं करीलें
हमने उमर गँवाई अपनी बीज फूल के बोते बोते
दर्द तुम्हारी अंगनाई के हम ही हैं बेटे इकलौते
परिचय के धागों ने बुनकर कोई आकॄति नहीं बनाई
साथ न इक पग चली हमारे पथ में अपनी ही परछाईं
घट भर भर कर झुलसी हुई हवायें भेजा करता मधुबन
इन राहों से रही अपैरिचित, गंध भरी कोमल पुरबाई
अभिलाषा की लिखी इबारत बिखर गई,हो अक्षर अक्षर
टूट गये सांसों ने जितने किये आस्था से समझौते
पतझड़ के पत्तों सा उड़ता रहा हवा में मन वैरागी
लगा न टुकड़ा इक बादल का गले कभी बन कर अनुरागी
बुझी राख से रँगे गये हैं चित्र टँगे जो दीवारों पे
सोती वापस साथ भोर के ऊषा एक निमिष भर जागी
अपनेपन की चादर ओढ़े जो मरीचिका बन कर आये
भ्रम ने घूँघट खोल बताया, ये थे सारे झूठे न्यौते
खिलती हुई धूप के सँग आ पीड़ाओं ने पंथ बुहारे
कांटे वन्दनवार बन गये, रहे सजाते देहरी द्वारे
पाथेयों की परिभाषायें संध्या के नीड़ों में खोई
चन्दा की चादर को ओढ़े मिले महज जलते अंगारे
साधों के करघे पर जब भी बुनी कोई दोशाला हमने
और उतारा तो फिर पाया सारे धागे ज्यों के त्यों थे
रांगोली रचती आंखों में उड़ती हुई डगर की धूलें
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये खड़ी रहीं जो की थीं भूलें
कतरा कर निकले गलियों से स्पर्श हवाओं की गंधों के
अपनेपन के अहसासों से हुआ नहीं आकर के छू लें
गंगा रही कठौती में भी गाथाओं में सुना हुआ था
रहे हमारे अभिलाषा के जल से वंचित किन्तु कठौते
आशंका की घिर कर आई सांझ सवेरे रह रह बदरी
जागी आंखों के सपनों में उलझी रही सदा दोपहरी
आर्त स्वरों से सजे थाल की पूजा ठुकरा दी देवों ने
असमंजस के चौराहे पर अटकी रही प्रगति जो ठहरी
टीका करती रहीं शीश पर दहलीजों पर उगीं करीलें
हमने उमर गँवाई अपनी बीज फूल के बोते बोते
2 comments:
टीका करती रहीं शीश पर दहलीजों पर उगीं करीलें
हमने उमर गँवाई अपनी बीज फूल के बोते बोते
शुभकामनायें आपके लिए भाई जी ....
दर्द का सारा अपनापन हमसे ही होता आया है। बहुत सुन्दर कविता।
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