चन्दन गन्धों के अभिलाषी
अभिलाषा के ओ प्रत्याशी
नभ तक हाथ बढ़ा ले लेकिन पहले अपनी सीमा देख
राजतिलक हर बार नहीं बन पाती सागर तट की रेत
संयोगों से घटित बात को समझ न लेखा लिखा नियति का
संयोगों से एक दिचस के लिये मशक का चलता सिक्का
कहाँ काठ की हांडी बोलो चढ़ी आग पर आ दोबारा
हर इक बार नहीं बन पाता यायावरी सेज चौबारा
प्रगति पंथ के ओ उत्साही
ओ चौखट पर भटके राही
मरूथल में आ नहीं जान्हवी करती मस्तक पर अभिषेक
राजतिलक हर बान नहीं बनती है सागर तट की रेत
अर्थ, अर्थ के संदर्भों के बिना अधूरे रह जाते हैं
समझो पहले श्रुतियां और ॠचायें जो कुछ कह जाते हैं
परिभाषा की सीमाओं को बंधन में मत करो संकुचित
थिरक अधर की नहीं बताती,भाव ह्रदय का हर इक प्रमुदित
जप तप से विमुखे बैरागी
प्रीत विहीना ओ अनुरागी
दो मुट्ठी बालू से रुकता नहीं उमड़ते जल का वेग
हाथ गगन तक फ़ैला लेकिन पहले अपनी सीमा देख
दिवास्वप्न पानी में उठते हुए बुलबुलों से क्षणभंगुर
रागिनियों में बन्धा नहीं है,अंधड़ भरी हवाओं का सुर
चौपालों के दीपक बनते नहीं सूर्य कितना भी चाहे
काक न पाता कोयल का स्वर चीख चीख कर कितना गाये
ओ नभ के आवारा बादल
टूती हुई द्वार की सांकल
से घर की रक्षा करने की कोशिश होती नहीं विवेक
राजतिलक हर बार नहीं बन पाती सागर तट की रेत
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7 comments:
टूती हुई द्वार की सांकल
से घर की रक्षा करने की कोशिश होती नहीं विवेक
अच्छी और एकदम अनूठी अभिव्यक्ति है
-गुलशन
चौपालों के दीपक बनते नहीं सूर्य कितना भी चाहे
काक न पाता कोयल का स्वर चीख चीख कर कितना गाये
--आपका जवाब नहीं, गजब की उपमायें होती हैं, सोच की पराकाष्ठा.
बधाई
हमेशा की तरह बहुत अच्छी. तारीफ करना भी शायद मेरी मर्यादा के बाहर ही है, शायद ऐसा लगेगा कि चौपाल पर बैठा एक प्रीत विहीना अनुरागी अपनी कर्कष कांय कांय से कोयल के मधुर गीत का अपमान कर रहा है या वैसा कि सूर्य को दिया दिखाया जा रहा है.
हमारे विचारों में भिन्नता है और शायद आगे भी रहेगी. मैं अपने विचारों की अभिव्यक्ति जैसे तैसे यहां वहां से टूटे फूटे शब्द इकठ्ठा करके काग बोली में करता भी रहूंगा. इन वाद-विवादों में जो असहमति होगी या होती है उसे मैं कटुता बन कर इस तथ्य को धुंधलाने नहीं दूंगा कि आप एक बहुत अच्छे कवि हैं जिनकी रचनायें सदा ही श्रेष्ठ होती हैं.
वैसी अगर कागा ना हो तो शायद कोयल का अस्तित्व ही ना रहे - धोखेबाज़ कोयल अपने अण्डे कागाजी के घोसले में देती है.
सूरज चाहे जितना रौशन करे - रात को तो दीपक ही काम आता है. दीपकों को राहु और केतु नहीं ग्रसते, दीपकों को सात घोड़ों वाला रथ भी नहीं चाहिये होता है.
:-)
हाथ बाँध कर, ध्यान लगा कर ...कर ली सब सीमायें याद...
अब इनको देती हूँ मैं..अपने हर निष्फल पल की दाद....
कविता बहुत सुंदर है...
Rakesh ji
Bahut Achi Achi Upmaon se sajaya ha rachna ka anchal.bahut bahut badhai.
राकेश जी आपकी रचना बहुत उत्तम कोटि की रचना है आपकी रचना ने उस युग की याद दिला दी जब निराला जी, बच्चन जी और पन्त जी जैसे कवियों का जमाना था आपकी लेखनी सदा ही निखरती रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है।
अनुरागजी
सांझ का दीपक तिमिर के स्वत्व को देता चुनौती
ज्योति का आव्हान करता, किन्तु हैं सीमायें उसकी
कोयली सरगम नहीं कहती कि क्या आधार उसका
रागिनी केवल कसौटी बन रही है आज उसकी
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गुलशनजी,समीरजी बेजी और मान्य भावना कुंअरजी
शब्द आपके सहज प्रेरणा मुझको आकर दे जाते हैं
लिख,करते अनुराग विचारों में मंथन फिर प्रश्न उठाकर
जो कि लेखनी को आकर के नव आयाम दिये जाते हैं
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