tag:blogger.com,1999:blog-15125972.post9041520754597239611..comments2023-11-03T05:42:12.168-04:00Comments on गीत कलश: शान्ति के पल ढूँढ़ता हैराकेश खंडेलवालhttp://www.blogger.com/profile/08112419047015083219noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-15125972.post-87893330483978068492013-12-21T05:15:20.097-05:002013-12-21T05:15:20.097-05:00गीत अच्छा है, मूल भाव सुन्दर हैं परन्तु कथ्य-भाव ...गीत अच्छा है, मूल भाव सुन्दर हैं परन्तु कथ्य-भाव व अर्थ बिखरे हुए अस्पष्ट, अनियंत्रित हैं..यथा....<br />"रीतियाँ बनने लगीं थीं पांव की जब बेड़ियां, तब<br />मैं बना रावण बिभीषण की तरह उनको धकेला"<br />---क्या रावण सही था इस परिप्रेक्ष्य में व विभीषण पाँव की बेड़ियाँ समान है.. अर्थात सीता हरण उचित था एवं सीता को लौटाने का परामर्श पाँव में बेड़ियाँ समान था इसलिए रावण ने बिभीषण को लात मारकर निकाल दिया ....<br /><br />--- दूसरे परिप्रेक्ष्य में क्या पत्नी रुक्मिणी को छोड़कर राधा को अपनाने का विचार था कृष्ण का...एवं रुक्मिणी कांच व अधेला और राधा को स्वर्ण मुद्रा कहा जा रहा है ..जो निंदनीय है...<br />=====इस प्रकार की कविता लिखते समय उसकी वास्तविक अर्थवत्ता पर ध्यान रखना चाहिए.... shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-15125972.post-80040414527749401082010-11-07T23:56:14.355-05:002010-11-07T23:56:14.355-05:00बहुत सी उपरी-उपरी कविताओं के बाद ही कोई कवि एक ऎसी...बहुत सी उपरी-उपरी कविताओं के बाद ही कोई कवि एक ऎसी कविता लिखता है जो एकदम उसके मन की बात हो; जैसे अब तक पाठकों के लिए लिख रहा था, आज अपने लिए लिख रहा है. जैसे बूंद बूंद गागर भर रही थी, आज छलक गई... और उस बूँद से ही एक धवल, मुक्ता-मणि सी कविता का उद्भव हुआ!<br />आपकी "पार वाली झोपड़ी से गाँव का व्यवहार", " पीर मन की बोलती तो है", " एक दिवस वह डरा डरा सा", " आज मन वृन्दावनी" इत्यादि को मैं इस तरह की कविताओं की श्रेणी में रखती हूँ. आज इस कविता को भी जोड़ रही हूँ.<br />----------<br />सीढियां चढ़ते हुए मैंने कभी सोचा नहीं था<br />कौन सी परछाइयों को छोड़ पीछे जा रहा हूँ -- ये कितना कटु सत्य!<br /><br />रीतियाँ बनने लगीं थीं पांव की जब बेड़ियां, तब<br />मैं बना रावण बिभीषण की तरह उनको धकेला ---ये कितना मुश्किल समझना और फ़िर लिख पाना ! बहुत ही सुन्दर!<br /><br />सोच तो थी गंधमादन से चुनूंगा फूल कुछ मै <br />लौट कर के फिर संवारूंगा गली की वाटिका को<br />रुक्मिणी से साथ मेरा चार दिन का ही रहेगा<br />और फिर भुजपाश में अपने भरूंगा राधिका को <br />--- ये कितना कितना सुन्दर बंद है! यूँ राम और कृष्ण के सन्दर्भों को जोड़ना आपके ही सामर्थ्य में है !...और राधिका की पीर ...ये तो शायद कोई भी कवि न समझ पाए ...आप भी नहीं !<br /><br />किन्तु मैं रीझा रहा बस कांच की परछाईयों मे --ये भी कितनों की नियति होती है...आजीवन!<br />स्वर्ण मुद्रा छोड़, थामा हाथ में अपने अधेला <br /><br />जो नियति ने सौंप दीना था नहीं सन्तोष देता -- शायद ये सबसे कठिन पंक्ति है गीत की अनुसरण करने के लिए. जैसे आपके दीपावली वाले गीत की वो जलन हटाने वाली पांति...वो भी कितनी मुश्किल है :(<br />लालसा ने पथ अंधेरी राह पर अक्सर बढ़ाये <br />दीप की लौ की पुकारें अनसुनी करता रहा मै<br />झाड़ियों में खो गया जुगनू जहाँ पर जगमगाये <br /><br />बहुत ही सुन्दर, सार्थक काव्य!<br />यूँ ही लिखा कीजिये!... सादर... शार्दुलाShardulahttps://www.blogger.com/profile/14922626343510385773noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-15125972.post-41123730043553310002010-11-07T22:59:02.414-05:002010-11-07T22:59:02.414-05:00सीढियां चढ़ते हुए मैंने कभी सोचा नहीं था
कौन सी पर...सीढियां चढ़ते हुए मैंने कभी सोचा नहीं था<br />कौन सी परछाइयों को छोड़ पीछे जा रहा हूँ<br />राग से बिछुड़ा हुआ है रागिनी से है अछूता<br />एक स्वर वह जो शिखर पर हो खड़ा मैं गा रहा हूँ <br /> सुंदर गीत बधाईSunil Kumarhttps://www.blogger.com/profile/10008214961660110536noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-15125972.post-66435335247139861532010-11-07T22:24:17.999-05:002010-11-07T22:24:17.999-05:00जो नियति ने सौंप दीना था नहीं सन्तोष देता
लालसा ने...जो नियति ने सौंप दीना था नहीं सन्तोष देता<br />लालसा ने पथ अंधेरी राह पर अक्सर बढ़ाये<br />दीप की लौ की पुकारें अनसुनी करता रहा मै<br />झाड़ियों में खो गया जुगनू जहाँ पर जगमगाये<br /><br />ऐसे गीतों का कोई जवाब नही..आज मैने गीत को गा के पढ़ा और मज़ा आ गया..बहुत बढ़िया ..सुंदर रचना के लिए बधाईविनोद कुमार पांडेयhttps://www.blogger.com/profile/17755015886999311114noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-15125972.post-4626581784812804602010-11-07T21:57:49.741-05:002010-11-07T21:57:49.741-05:00मन अकेला, मौन भी बसने लगा,
सत्य देखा, स्वयं पर हँस...मन अकेला, मौन भी बसने लगा,<br />सत्य देखा, स्वयं पर हँसने लगा।प्रवीण पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/10471375466909386690noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-15125972.post-67955163187886680592010-11-07T21:14:55.039-05:002010-11-07T21:14:55.039-05:00Oh! Kitni Kitni sunder kavita hai yeh Guruji! Lunc...Oh! Kitni Kitni sunder kavita hai yeh Guruji! Lunch mein likhungi poora comment.Sharhttps://www.blogger.com/profile/16686072974110885189noreply@blogger.com