जब खुली थी प्रथम, होंठ की पाँखुरी

नव ग्रहों ने किया आज गठजोड़ यूँ
सब के सब आज नौ  वर्ष में ढल गए
इक रजत पर्व की जो थी प्रतिमा सजी
उसमें आकर सभी एक संग  मिल  गए

फिर से इतिहास के पृष्ठ कुछ खुल गए
याद में सात रंगी उमंगें घिरी
फिर से जीवंत होने लगे वे निमिष
जब खुली थी प्रथम, होंठ की पाँखुरी
दृष्टी की रश्मियाँ थी रिसी ओट से
पार करते हुए कुछ अवनिकाओं को
तंत्रियों में बजी सरगमों की धुनें
साज करते हुए मन की धाराओं को

वह घड़ी जब हृदय से हृदय के सिरे
बिन प्रयासों के सहसा गले मिल गए
इक रजत पर्व की जो थी प्रतिमा सजीं
आज उसमें बरस पूर्ण  नौ  मिल गए

एक वह मोड़ जिस पर भटकती हुई
वीथियां दो अचानक निकट आ गई 
एक वह पल कि जिसमें समाहित हुई
प्रेम गाथाएं खुद को थी दुहरा गई
जो शची से पुरंदर का नाता रहा
उर्वशी से पुरू का था सम्बन्ध जो
एक पल में नया रूप धरते हुए 
सामने आ खड़ा अवतरित हो के वो 

झोंके बहती हवा के लिए गंध को
तन को मन को भिगोने को ज्यों तुल  गए
इक रजत पर्व की जो थी प्रतिमा सजीं
आज उसमें बरस पूर्ण  नौ  मिल गए

अग्नि के साक्ष्य में जो हुए थे ध्वनित 
मन्त्र के स्वर लगे आज फिर गूंजने 
शिल्प का एक, श्रृंगार आकर किया 
रूप की चमचमाती हुई धूप  ने 
स्वस्ति चिह्नित भरे जलकलश सामने 
एक चादर बना व्योम तारों भरी 
मन ने दुहराई फिर आज अनुबंध के
सत्य सौगंध की इक नै पंखुरी 

इक नए वर्ष की सज रही राह में 
कामना के सुमन और कुछ खिल गए
इक रजत पर्व की जो थी प्रतिमा सजीं
आज उसमें बरस पूर्ण  नौ  मिल गए  

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