साथ चलती हैं दिवस के बस यही कुछ कामनाएं
हों क्षितिज के पार शायद कुछ नई सम्भाभानाएँ
हों क्षितिज के पार शायद कुछ नई सम्भाभानाएँ
आस पगली खटखटाते द्वार हारी आगतों का
पर समय विकलांग था असमर्थ, कुछ भी सुन न पाया
जो अपेक्षा ने सजाये चित्र सूखे रंग ले कर
मेघ ने नैराश्य के हर बार ही धोकर बहाया
पर समय विकलांग था असमर्थ, कुछ भी सुन न पाया
जो अपेक्षा ने सजाये चित्र सूखे रंग ले कर
मेघ ने नैराश्य के हर बार ही धोकर बहाया
भोर आकर सौंपती है कंठ को नव प्रार्थनाएं
हों परे शायद क्षितिज के कुछ नई संभावनाएं
हों परे शायद क्षितिज के कुछ नई संभावनाएं
धूप की दीवार पर मन खींचता है अल्पनाएँ
ले हवा की कूँचियों को, भोर के रंगों डुबोकर
साँझ आकर पोत देती स्याह से सुरमायेपन को
और आँचल में लपेटे साथ ले जाती समोकर
ले हवा की कूँचियों को, भोर के रंगों डुबोकर
साँझ आकर पोत देती स्याह से सुरमायेपन को
और आँचल में लपेटे साथ ले जाती समोकर
रात फिर आ आँज देती है सपन की कल्पनाएँ
हों क्षितिज के पार शायद कुछ नई सम्भावनाएँ
हों क्षितिज के पार शायद कुछ नई सम्भावनाएँ
थक चुके चलते हुए पग रिक्तता पाथेय में ले
सोच कहती अब कोई बदलाव भी सम्भव नहीं है
जो अपेक्षित था सदा ही तो उपेक्षित हो रहा है
खिंच गई जो रेख पत्थर पर कभी मिटती नहीं है
सोच कहती अब कोई बदलाव भी सम्भव नहीं है
जो अपेक्षित था सदा ही तो उपेक्षित हो रहा है
खिंच गई जो रेख पत्थर पर कभी मिटती नहीं है
पर हताशा को सदा मन से मिली है वर्जनाएँ
हैं क्षितिज के पार निश्चित अब नई सम्भावनाएँ
हैं क्षितिज के पार निश्चित अब नई सम्भावनाएँ
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