आपाधापी में जीवन की कहीं तनिक विश्राम नहीं
इस पथ की अविरलताओं में है पीपल की छाह नहीं
इस पथ की अविरलताओं में है पीपल की छाह नहीं
मुट्ठी में उंगली थामे सेहुये अग्रसर पग चल चल कर
उंगली थमा किसी को पथ का निर्देशन देने तक आये
कभी लोरियों की सरगम के झूलों पर पेंगे भर झूले
कभी छटपटात सांझो में रहे अकेले दिया जलाये
गति ने उन्हें जकड़कर रखा रुक न सके थे पांव कही
इस पथ की अविरालताओं में, कही तनिक विश्राम नही
स्थिति जनित विवशताओं के परिवेशों में उलझा मानस
रहा ढूंढता समीकरण के हुए तिरोहित अनुपातों को
बोई सदा रात की क्यारी में मृदु आशाओ की कोंपल
और बुहारा किया दुपहरी में बिखरे टूटे पातों को
सपने जिसे सजा रक्खे थे, रहा दूर ही गाँव कहीं
और राह में दिखी कहीं भी इक पीपल की छाँह नहीं
कोई साथी नहीं न कोई साया, नहीं काफिला कोई
बीत गए युग वृत्ताकार पथों की दूरी को तय करते
मृग मरीचिका से आशा के लटके रहे क्षितिज पर बादल
संभव नहीं हुआ पल को भी छत्र शीश पर कर कर झरते
दूर दूर तक नीड़ न कोई, जिसको घेरे घाम नहीं
और एक विश्रान्ति सजाने को पीपल की छाँह नहीं
1 comment:
अब नोटिफिकेशन आ रहा है. पुराने फार्मेट पर शिफ्ट किया क्या?
कविता उम्दा!!
Post a Comment