कलम से इस हथेली पर


अधूरी रह गई सौगंध, जब तुमने कहा मुझसे
कलम से इस हथेली पर समर्पण त्याग लि
​ख ​
देना

कथानक युग पुराना आज फिर दुहरा दिया तुमने
समर्पित हो अहल्या रह गई अभिशाप से 
​दंशित 

तपा सम्पूर्ण काया को धधकती आग से गुज
​री ​

मगर फिर भी रही 
​वैदेही 
हर अधिकार से वंचित

कहाँ तक न्यायसंगत है कोई अनुबंध इक तरफ़ा
पुराना पृष्ठ फिर इतिहास का इक बार लिख देना

समर्पित हो , रहे हो तुम कभी इतना बताओ तो
पुरंदर तुम, शची का त्याग क्या इक बार पहचाना
पुरू अपने समय के सूर्य थे तुम घोषणा करते
कभी औशीनरी की उर व्यथा के मूल को जाना

चले हम आज जर्जर रीतियाँ सा
​री ​
 बदल डालें
ज़रूरी है ह्रदय पर प्रेम और अनुराग लिख देना

कहो क्या प्रेम आधारित कभी होता है शर्तों 
​पर 
कहाँ मन से मिले मन में उठी हैं त्याग की बातें 
​समर्पण हो गया सम्पूर्ण जब भी प्रेम उपजा है 
गए हैं बँध धुरी  से उस, समूचे दिन, सभी रातें 

कहाँ  जन्मांतर सम्बन्ध होते शब्द में सीमित 
किशन-राधा सती-शिव का उदाहरण आज लिख देना 

कलम से ज़िंदगी में इक महकता बाग़ लिख देना 

1 comment:

Udan Tashtari said...

अद्भुत

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