जिस्र आज ने फिर दुहराया


मन उदास हैहो निढाल बस सोफे पर लेता अलसाया
ये ही तो हालत कल की थीजिस्र आज ने फिर दुहराया

दिन उगता घुटनों के बल चल संध्या को जल्दी सो जाता
मौन खड़े पत्ते शाखों पर कोई कुछ भी कह न पाता
खिड़की की चौखट को थामे खड़ी धूप बीमार सिसकती
अँगनाई की पलक प्रतीक्षा का हर पल उत्सुक रह जाता ​

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पता नहीं चलता कब आकर रजनी ने  आँचल फहराया 
ऐसे ही कल की थी हालत जिसे आज ने फिर दोहराया ​

 

दूर क्षितिज तक जा पगडण्डी रही लौटती दम को साधे
सूना मंदिर लालायित था कोई आकर कुछ आराधे
हवा अजनबी पीठ फिराये खड़ी रही कोने में जाकर
बढ़ता बोझा एकाकीपन का, ढो ढो झुकते है काँधे

ताका करती दॄष्टि ​भाव की गुमसुम हो बैठी  कृशकाया
ऐसा ही तो कल बीता था जिसे आज ने फिर दुहराया ​

 

संदेशों के जुड़ कर टूटे कटी पतंगों जैसे धागे
बढ़ती हुई अपेक्षा रह रह पल दो पल का सहचर मांगे
फ़ैली हुई ​नजर ​की सीमा होती जाती और संकुचित
हो निस्तब्ध प्रश्न के सूचक, बने घड़ी के दोनों कांटे

फौलादी होता जाता है पल पल सन्नाटा गहराया
ऐसे हुआ हाल कल भी था जिसे आज ने फिर दोहराया

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

बस, प्रयास, कुछ अलग दिखे दिन।

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