प्रश्न छेड़े ही नही


 प्रश्न छेड़े ही नही बस जुड़ गये सम्बन्ध यूं ही
ज़िन्दगी के ज़िन्दगी से बन गये अ​नुबंध यूं ही

 एक अनजानी डगर पर पाँव यो ही रुक गए थे
और नयनो के पटल  पर रुक गए कुछ दृश्य आकर
प्रश्न की सीमाओं से औ तर्क से होकर परे ही
बन गए सहसा भविष्यत आप ही वे अचकचाकर

पूर्व इसके चल रहे थे पाँव तो स्वच्छन्द यूं ही
प्रश्न छेड़े ह नहीं बस जुड़ गए सम्बन्ध यूं ही ​

दर्पणो में जो बने प्रतिबिम्ब थे सब ही अजाने 
और धागे शेष थे सन्दर्भ के टूटे हुये ही
प्रश्न नजरो में बसे थे ताकते रहते क्षितिज को
उत्तरो के मेघ लेकिन रह गए रूठे हुए ही

प्रश्न छेड़े ही नहीं कब स्वाति की बूंदे झरेंगी
क्यारियों के पुष्प में बस उग गए मकरंद यूं ही

भावना  ने बुन दिया जो प्रेम का प्रारूप इक पल
वो हृदय के शैल पर इक लेख बन कर लिख गया था
कैनवास को ला निरंतर इंद्रधनु ने रंग सौपे
पर अपरिवर्तित रहा जो चित्र मन पर बन गया था

ना ही मंत्रोच्चार न ही यज्ञ की साक्षी रही थी
जन्म की जन्मान्तरों की खा गए सौगंध यूं ही 

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