और एक दिन बीता

और एक दिन बीता 
कर्मक्षेत्र से नीड तलक बिखरे चिन्हों को चुनते हुए राह में 
बिखर रहे सपनों का हर अवशेष उठाते हुए बांह में 
संध्या के  तट  पर आ पाया हर घट था रीता 
और एक दिन बीता 

एक अधुरी परछाई में सुबह शाम आकार तलाश  करते
छिद्रित आशा के प्याले मे दोपहरी के शेष ओसकण भरते 
और कोशिशें करते समझाती रहती क्या   गीता 
और एक दिन बीता 

थकी हुई परवाजों की गठरी को अपनी जोड़े हुए सुधी से 
रहे ताकते पंथ अपेक्षा का जो  लौट होकर पूर्ण  विधी से 
और बने उपलब्धि संजोई आशा की परिणीता 
और एक दिन बीता

1 comment:

Udan Tashtari said...

और एक दिन बीता...ऐसे ही दिन पर दिन बीते...सुन्दर!!

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