कभी कभी यह मन यूं चाहे,

कभी कभी यह मन यूं चाहे,
आज तोड़ कर बन्धन सारे  
उड़े कहीं उन्मुक्त गगन में
कटी पतंगों सा आवारा

खोल सोच का अपनी पिंजरा
काटे संस्कृतियों के बन्धन
धरे ताक पर इतिहासों का
जीवन पर जकड़ा गठबन्धन
तथाकथित आदर्शों का भ्रम
जो थोपा सर पर समाज ने
काट गुत्थियां सीधा कर दे
पल भर में सारा अवगुंठन

रोके चलती हुई घड़ी के
दोनों के दोनों ही कांटे
और फिरे हर गैल डगर में
बिन सन्देश बना  हरकारा

दे उतार रिश्तों की ओढ़ी
हुई एक झीनी सी चादर
देखे सब कुछ अजनबियत की
ऐनक अपने नैन चढ़ाकर
इसका उसका मेरा तेरा
रख दे बाँध किसी गठरी में
और  बेतुकी रचना पढ़ ले
अपने पंचम सुर में गाकर

भरी दुपहरी में सूरज को
दीप जला कर पथ दिखलाये
पूनम की कंदील बनाकर
उजियारे आँगन चौबारा  
  
जीवन की आपा धापी को
दे दे जा नदिया में धक्का 
प्रश्न करे जो कोई, देखे
उसको होकर के भौचक्का
जब चाहे तब सुबह उगाये,
जब चाहे तब शाम ढाल दे
रहे देखता मनमौजी मन
हर कोई रह हक्का बक्का 

जब चाहे तब कही ग़ज़ल को 
दे दे नाम गीत का कोई 
और तोड़ कर बन्धन गाये
प्रेम गीत लेकर हुंकारा  

3 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन प्रस्तुति, महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें।

Udan Tashtari said...

मुझे चाहिये आजादी!!
हर बन्धन से आजादी...
उन्मुक्त गगन में उड़ने की
मुझको चाहिये आजादी!!

जसवंत लोधी said...

बहुत ही सुन्दर रचना है
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