पर कोई आवाज़ न गूँजी

असंमंजस में लिपट रह गया मन का निश्चय और अनिश्चय
कहाँ जतन कर राह बनाये, राह नहीं कोई भी सूझी
 
घुँघरू ने भेजे वंशी को रह रह कर अभिनव आमंत्रण 
सम्बन्धों की सौगन्धों की दोहरा दोहरा याद दिलाई
प्रथम द्रष्टि ने जिसे लिख दिया था मन के कोरे कागज़ पर
लिपटी हुई प्रीत की धुन में वह इक कविता फिर फिर गाई
 
खुले अधर की देहलीजों पर अटके हुए स्वरों ने चाहा
कितनी बार शब्द को थामें, पर कोई आवाज़ न गूँजी
 
फूल कदम  के तले बिछाये रहे गलीचा पँखुरियों का
सिकता अभ्रक के चूरे सी कोमल,हुई और चमकीली
आरोहित लहरों ने पल पल  तट तक आकर दस्तक दी थी
हुई सांवरी डूब प्रतीक्षा में अम्बर की छतरी नीली
 
पलक बिछा कर स्वागत करता बाँहो को फ़ैलाये मधुवन
लालायित था पग छूते ही सहज लुटा दे संचित पूँजी
 
गोकुल से बरसाने तक था नजरें फ़ैलाये वृन्दावन
दधि की मटकी एक बार भी मथुरा के पथ पर न फ़ूटी
छछियायें ले भरी छाछ की बाट जोहती थीं छोहरियाँ
नाच नाचती जो कामरिया औ लकुटी, जाने क्यों रूठी
 
पायल रही आतुरा थिरके, धुन पर बजती  बाँसुरिया की
कालिन्दी तट की निर्जनता, सूनेपन से प्रतिपल  जूझी
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