दीप चौखट पर रखे ही रह गए पल भी जले ना

भाव उमड़े होंठ पर आ शब्द में लेकिन ढले ना
दीप चौखट पर रखे ही रह गए पल भी जले ना
 
जो विगत था दे गया उपहार में बस प्रश्न लाकर
गुत्थियों ने चक्रव्यूहों में रखा उनको सजाकर
उत्तरों के भेद सारे नींद के संग उड़ गये थे
और आगत देखकर इनको रहा हँसता ठठाकर
 
बीज जितने बो रखे थे अंकुरित होकर फ़ले ना
दीप चौखट पर रखे ही रह गए पल भी जले ना
 
रख रखीं उलझाये धारायें सभी अनुबन्ध वाली
ज़िन्दगी ने साथ हर पग पर दिया बन कर सवाली
उंगलियों को थामते हर मोड़ पर आकर अनिश्चय
मुट्ठियों ने एक चुटकी भर न सिकता भी संभाली
 
आस के प्रतिबिम्ब भी पल को मिले आकर गले ना
दीप चौखट पर रखे ही रह गए पल भी जले ना
 
पाँव जब आगे बढे पीछे डगर ने थाम  खींचे
नींद से कर वैर सपने रह गए थे आँख मीचे
मानकों ने बादलों के पंख कंधों पर उगाये
छोड़ कर आकाश की गलियाँ नहीं आ पाए नीचे
 
हो कभी अनुकूल तारे चार पग सँग चले ना 
दीप चौखट पर रखे ही रह गए पल भी जले ना

1 comment:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति, गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाये।

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