सोचा रहा था गीत लिखूँ इक

सोचा रहा था गीत लिखूँ इक,मीत तुम्हारी सुन्दरता पर
चित्र नयन तक पर आते ही, आँखें रह जाती पथराई
 
लिखूं तुम्हारी सांसों से ले गंध महकते हैं चन्दन वन
लिखूं तुम्हारे केशों से ले छन्द गान करता है सावन
लिखूं तुम्हारी कटि की थिरकन से लेती हैं गति शिजिनियाँ
लिखूँ कथकली कुचीपुड़ी का उद्गम एक तुम्हारी चितवन
 
लेकिन जब यह कलम उठी तो हुई स्व्यं में ही सम्मोहित
रूप तुम्हारे में यों उलझी शब्द नहीं कोई लिख पाई
 
उड़े कल्पनाओं के पाखी ध्यान तुम्हारा मन में आते
अनायास सरगमी हो गये स्वर होठों तक आते आते
बन्द पलक ने छवि की खींची जैसे ही आकृतियां धुंधली
रंग पंक्ति में खड़े हो गये, अपनी बारी को ललचाते
कलम हाथ की बनी तूलिका पर छूते ही तनिक कैनवस
चित्रलिखित हो खड़ी रह गई अपनी सब सुध बिध बिसराई
 
कदली खंभे, गगन अषाढ़ी सिहरी सी गुलाब की पाँखुर
इकतारे से कानाफ़ूसी करता सा बांसुरिया का सुर
पनघट का कंगन से पैंजनियों से रह रह कर बतियाना
नयनों के दर्पण का रहना आठ प्रहर होकर के आतुर
 
कारण सबका सिर्फ़ तुम्हारी ही चर्चायें सुनो अवर्णित
भाषा अक्षम रही बांधने में विस्तार, रही सकुचाई

1 comment:

Udan Tashtari said...

वाह

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