दृष्टि के पत्र लौटा गया सब क्षितिज


एक अरसा हुआ जूही देखे हुये
चित्र चम्पाकली के भी धुंधले हुये
हरसिंगारों से दूरी बढ़ी सिन्धुभर
कोई पांखुर न आ मोतिये की छुये
 
हाथ नभ तक किये पत्थरों का शहर
मुट्ठियों में हवा की जकड़ चूनरी
देता निर्देश बहना उसे किस डगर
और रखनी कहां पर बना डूंगरी
 
पग को जैसे धरोहर मिली नारदी
देने विश्रान्ति को ठौर है ही नहीं
एक पल जो कभी परिचयों में बँधा
दूसरी ही घड़ी खो गया वो कहीं
 
पतझरी मौसमों के असर में शहर
झर रहे पत्र बन कर दिवस शाख से
और ले जा रहे साथ वे मोड़ चुन
थी बहस की जहां पर गई रात से
 
दृष्टि के पत्र लौटा गया सब क्षितिज
कोई स्वीकारता था कहीं भी नहीं
एक गति है रही पांव थामे हुये
पर सफ़र था जहां,हैं अभी भी वहीं 
 
बादलों ने गगन पे जो दी दस्तकें
भीड़ के शोर में वे सभी खो गईं
राह बिखरी हुई चीथड़ों की तरह
एक झूठे भरम की सुई सी गई
 
दृष्टि अनभिज्ञ  रहती  कहां केन्द्र हैं
डोर थामे रहीं कौन सी उंगलियां
दे रहा है इशारे भला कौन है
कर रहे नृत्य बन काठ की पुतलियाँ
 
मुट्ठियों की पकड़ में नहीं आ सके
सूर्य तो हाथ अपने बढ़ाता रहा
बदलियों ने उलीचे तिमिर के घड़े
रंग पीते दिवस गीत गाता रहा
 
एक गति बेड़ियों में जकड़ है रखे
छूट देती नहीं अंश भर के लिये
देख पाती नहीं है स्वयं को नजर
आईने पास के धुंध ने पी लिये
 
हो गई ज़िन्दगी अनलिखी इक गज़ल
कट रदीफ़ों से, खोकर सभी काफ़िये
हाथ में चन्द टूटी रहीं पंक्तियाँ
लड़खड़ाते स्वरों में जिन्हें गा लिये.

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