एक किरन प्रतिबिम्बित होकर मन वातायन सजा रही है

लगने लगें अजनबी तुमको जब घर की दीवारें अपने
सांझ भोर में दोपहरी में आंखों में तिरते हों सपने
अनायास ही वर्तमान जब चित्र सरीखा हो रह जाये
एक शब्द पर अटक अटक कर अधर लगें रह रह कर कँपने
तो शतरूपे ! विदित रहे यह मधुर प्रीत की इक कोयलिया
मन की शाखाओं पर आकर नई रागिनी सुना रही है
 
सांझ अकेली करती हो जब खिड़की के पल्लों से बातें
तारों को कर बिन्दु,खींचने लगती हो रेखायें रातें
छिटकी हुई धूप पत्तों से, सन्देसा लेकर आती हो
और हवा के झोंके लेकर आयें गंधों की बारातें
तो रति प्रतिलिपि ! यह संकुल हैपुष्प शरों के तरकस में से
एक किरन प्रतिबिम्बित होकर मन वातायन सजा रही है
 
दर्पण अपनी सुध बुध खोकर रूप निरखता ही रह जाये
पगतलियों को छूते पथ की धूल लगे चन्दन हो जाये
पत्तों की सरसर से उमड़े सारंगी की तान मनोहर
अपनी परछाईं भी लगता अपने से जैसे शरमाये
तो संदलिके! यह प्रमाण है उम्रसंधि की यह कस्तूरी 
इस पड़ाव को अपनी मोहक गंध लुटा कर सजा रही है

1 comment:

Udan Tashtari said...

रति प्रतिलिपि

:)

अद्भुत!!

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