गीतमय करने लगा हूँ

आपका ये तकाजा लिखूँ गीत मैं कुछ नई रीत के कुछ नये ढंग के
ज़िन्दगी की डगर में जो बिखरे पड़े, पर छुये ही नहीं जो गये रंग के
मैने केवल दिये शब्द हैं बस उन्हें सरगमों ने बिखेरा  जिन्हें ला इधर
कामना शारदा बीन को छोड़ कर राग छेड़े नये आज कुछ चंग पे
 
 
 
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था कहा तुमने मुझे यह ज़िन्दगी है इक कहानी
हर कड़ी जिसमें निरन्तर रह रही क्रम से अजानी
एक लेखक की कथानक के बिना चलती कलम सी
चार पल रुक, एक पल बहती नदी की बन रवानी
 
मैं तुम्हारे इस कथन की सत्यता स्वीकार करता
अनगढ़ी अपनी कहानी गीतमय करने लगा हूँ
 
चुन लिया अध्याय वह ही सामने जो आप आया
दे दिया स्वर बस उसी को, जो अधर ने गुनगुनाया
अक्षरों के शिल्प में बोकर समूची अस्मिता को
तुष्टि उसमें ढूँढ़ ली जो शब्द ने आ रूप पाया
 
जो टपकती है दुपहरी में पिघल कर व्योम पर से
या निशा में, मैं उसी से आँजुरी भरने लगा हूँ
 
रात की अंगड़ाईयां पुल बन गईं हैं जिन पलों का
आकलन करती रहीं आगत,विगत वाले कलों का
बुन रहे सपने धराशायी हुई हर कल्पना पर
हैं अपेक्षा जोड़ती ले बिम्ब चंचल बादलों का
 
ज्ञात होना अंकुरित नव पल्लवों का है जरूरी
इसलिये मैं आज पतझर की तरह झरने लगा हूँ
 
चेतना के अर्थ से क्या दूरियाँ अवचेतना की
मुस्कुराहट से रही कब दूरियाँ भी वेदना की
शाश्वतों से भंगुरों के मध्य में है भेद कितना
मौन से कितने परे हैं दूरियां संप्रेषणा की
 
देर तक छाया नहीं मिलती,  हवा की ओढ़नी से
मैं इसे स्वीकार करता धूप में तपने लगा हूँ-

2 comments:

Shardula said...

बहुत ही सुन्दर कविता! अंतिम पद तो अद्वितीय!
पहले आनंद ले लूं, फिर लिखूंगी! :)
अभी बस आभार आपका!

प्रवीण पाण्डेय said...

मूलता में सुख और दुख संग होकर नाचते हैं,
पर जगत में, क्रूर होकर, धैर्य सबका मापते हैं।

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