अधर की रंगत लेकर उगें सवेरे

हवा चाहती है आरक्त कपोलों को रह रह कर चूमे
अभिलाषित है उषा अधर की रंगत लेकर उगें सवेरे
दोपहरी आतुरा ओढ़ ले छिटकी हुई धूप चूनर से
लालायित है निशा तुम्हारे चिकुरों से ले सके अँधेरे
 
प्रतिपादित सब नियम भौतिकी के चाहें खुद टूट बिखरना
द्वार तुम्हारे रहना चाहे छोड़ गगन हर एक सितारा
 
उंगली की पोरों से बिखरी हुई हिना कचनार बन गई
प्रतिबिम्बित जब हुआ अलक्तक पग से तो गुलाब मुस्काये
पायल की रुनझुन से जागी बरखा लेले कर अँगड़ाई
वेणी थिरकी तो अम्बर में सावन के बादल घिर आये
 
खंजननयने, स्वयं प्रकृति भी चाहे तुमसे जुड़ कर रहना
पांव तुम्हारे छूना चाहे उमड़ी हुई नदी की धारा
 
कंगन जब करने लगता है हथफूलों से गुपचुप बातें
तब तब गूँजा करती जैसे सारंगी की धुन मतवाली
दृष्टि किरण किस समय तुम्हारी शिलाखंड को प्रतिमा कर दे
आतुरता से बाट निहारे ठिठकी हुई सांझ की लाली
 
ज्ञात तुम्हें हो दिशा दिशायें तुमसे ही पाने को आतुर
प्राची और प्रतीची ने तुमसे ही तो ले रूप सँवारा
 
गंधों को बोती क्यारी में धूप केसरी परिधानों की
चन्दन के वृक्षों पर जिससे आने लगती है तरुणाई
और हवाके नूपुर की खनकें जिससे उपजा करती हैं
शिल्पकार के स्वप्नों वाले तन की ही तो है परछाईं
 
कलासाधिके  ! देश काल की सीमाओं की रेख मिटाकर 
भाषाओं  के विविध चित्र को तुमने  ही है सदा उजारा 

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मन जब बहता, सब जड़ ढहता,
क्या जाने, कितना कुछ कहता।

Udan Tashtari said...

वाह जी!!

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...