तीजे सप्ताह सितम्बर के सूरज की गर्दन झुक जाती
तो तिरछी हुई भवों वाला गुस्सा ठडा होने लगता
दिन अकड़े हुये पसारे थे पांवों को सीमा के बाहर
उनका कद अपनी सीमा में वापिस आकर भरने लगता
अठखेली करते हुये पवन के झोंके दिशा बदलते हैं
उत्तर से उड़ी पतंगों की डोरी थामे आ जाते हैं
तो सिहरन से बजने लगती है जल तरंग मेरे तन में
अधरों के चुम्बन प्रथम मिलन के यादों में भर जाते हैं
घर के बाहर पग रखते ही ठंडक में डूबे झोंके कुछ
मेरे गालों को हाथ बढ़ा कर हौले से छू लेते हैं
तो झंकृत होते स्पंदन से आवृतियां बढ़ती धड़कन की
तब गुल्मोहर के तले हुये भुजबन्धन फिर जी लेते हैं
पानी में गिरे दूध जैसी धुंधली दोशाला को ओढ़े
अलसाई भोर उबासी ले रह रह लेती है अँगड़ाई
घुलते हैं प्रथम आरती के स्वर जैसे सभी दिशाओं में
जीवित हो कदम बढ़ाती है गति की फिर नूतन तरुणाई
आंखों के आगे उगे दिवस की खींची हुई रूपरेखा
के खाली खाली सब खाने लगता खुद ही भर जाते हैं
तो साथ तुम्हारे जो बीते, उन सुखद पलों के स्वर्णचिह्न
संध्या तक की दीवारों पर बन भित्तिचित्र जड़ जाते हैं
1 comment:
पवमानों को शीतल होते ही, स्मृतियाँ जुट जाती हैं।
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