और अपने आप को कब तक छलेगा यूँ प्रवासी


आज फ़िर से खो गया प्रतिबिम्ब की परछाईं में मन
और धुंधली हो गई नभ में बिखरती चन्द्रिका भी
शून्य तक जाती हुई पगडांडियों पर पांव धरते
और अपने आप को कब तक छलेगा यूँ प्रवासी
 
 
हो चुकी हैं वे अपरिचित थी जड़ें जिन क्यारियों में
फूल बनते ही हवाओं ने सभी पाटल उड़ाये
गंध की आवारगी जिन वीथियों में घूमती थी
द्वार उनके जानता है दूर तक थे याद आये
 
 
खोलने में आज है असमर्थ पन्ने स्पन्दनों के
उड़ चुकी हैं रंगतें अब हाथ से सँवरी हिना की
 
 
जानता इस पंथ मेम मुड़ देखना पीछे मना है
राह में डाले तिलिस्मों ने निरन्तर जाल अपने
मूर्तियो मे  ढल गये कितने पथिक अब तक डगर में
लग रही हैं गिनतियां भी गिनतियां कर आज थकने

 
लौट कर आता नहीं इस सिन्धु में नाविक पलट कर
थाम कर झंझायें ले जाती रहीं उसको सदा ही
 
 
खटखटाते द्वार क्षितिजों के तुझे हासिल हुआ क्या
कांच के टुकड़े मरुस्थल के लिये भ्रम दूर तक हैं
खिलखिलाहट की सभी शाखाओं पर पतझर रुके हैं
बोध देने को दिशाओं का तुझे बस सूर अब हैं
 
 
उग रही है कंटकों सी प्यास रह रह कर अधर पर
सोख बैठी शुष्कियाँ इस बार सब नमियाँ हवा की

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

एक हवा, जो घर से आये,
एक हवा, जो मन भर जाये।

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