और करूँ बस बातें तुमसे

मैने कब यह कहा कि मैं हूँ कोई कवि, कविता करता हूँ
या मैं कोई चित्रकार हूँ, रंग चित्र में ला भरता हूँ
मैं तारों की छाया में इक भटक रहा आवारा बादल
उषा की अगवानी करता, मैं पंखुरियों पर झरता हूँ
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आज अचानक ना जाने क्यूँ ऐसा मुझको लगा सुनयने
गीत गज़ल सब लिखना छोड़ूँ, और करूँ बस बातें तुमसे

पूछूँ मुझसे दूर तुम्हारे कैसे कटते हैं दिन रातें
क्या पाखी लेकर आते हैं कुछ सन्देशों की सौगातें
जैसे मेरा मानस पट बस चित्र तुम्हारे दिखलाता है
नयन तुम्हारे भी क्या वैसे देखें चित्रों की बारातें

हवा चली उत्तर से आये दक्षिण से पूरब पश्चिम से
उसकी हर अंगड़ाई मुझको लगता जुड़ी हुई है तुमसे

बुनता लिये कल्पनाओं के धागे मन बासन्ती पल्लव
खड़ी रसोई में चूल्हे पर चाय बनाती होगी तुम जब
अनायास उग गये भाल पर स्वेद कणों को चुम्बित करने
स्वयं कमर में उड़सा पल्लू बाहर आ जाता होगा तब

काफ़ी का प्याला हो कर में या हो चाय दार्जिलिंग वाली
लगता मुझे अनूठेपन का स्वाद मांग लाई हैं तुमसे

आ जाता है ख्याल काम जब करता मैं अपने दफ़्तर में
तब हर अक्षर मुझको लगता लिखा तुम्हारे ही खुश्खत में
क्या तुमने भी महसूसा है ऐसे ही कुछ व्यस्त पलों में
कभी ट्रेन में आफ़िस में या कभी काम कुछ करते घर में

लिखता हूँ तो शब्द तुम्हारे ही नामों में ढल जाता हैं
पढ़ता हूँ तो गीत कहानी सब कुछ प्रेरित लगता तुमसे

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

वाह, सुबह का पूरे सोंधेपन से भरी पंक्तियाँ।

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