कौन जिससे फूल ने सीखा महकना


कौन है जो चाहता है गीत में मेरे संवरना
भावना की उंगलियों को थाम छन्दों में विचरना
 
 
कौन है जो सुर मिलाये गुनगुनाहट से मधुप की
कौन तितली के परों पर आप अपना चित्र खींचे
कौन अलसाई दुपहरी की तरह अंगड़ाई लेता
स्वप्न बन आये नयन में,सांझ जब भी आँख मीचे
 
 
सोचत्ता हूँ, कौन जिससे फूल ने सीखा महकना
कौन है जो चाहता है गीत में मेरे सँवरना
 
 
कौन है जो शब्द को देता निरन्तर अर्थ नूतन
कौन जो गलबाँह डाले चेतना सँग मुस्कुराता
कौन भरता प्राण में माधुर्य सुधियों के परस का
कौन मेरी धमनियों में शिंजिनी सा झनझनाता
 
 
ढूँढ़ता हूँ कौन,जिससे सीखती कलियाँ चटखना
कौन है जो चहता है गीत में मेरे संवरना
 
 
कौन है मन में जगाये ताजमहली प्रेरणायें
कौन बन कर तूलिकायें,रंग खाकों में उकेरे
यामिनी की सेज सज्जित कौन करता आ निशा में
कौन बन कर दीप अभिनन्दित करे उगते सवेरे
 
 
कौन अंधियारे ह्रदय में सूर्य सा चाहे चमकना
कौन है जो चाहता है गीत में मेरे संवरना
 
 
हो रहीं सुधियाँ विलोड़ित कौन जिसकी एक स्मृति से
कौन है परछाईयों में भर रहा आभा सिँदूरी
कौन होकर के समाहित कालगति में चल रहा है
कौन जिसके नाम बिन हर साँस रह जाती अधूरी
 
 
कौन जिसका बिम्ब चाहे नैन में रह रह उतरना
कौन है जो चाहता है गीत में मेरे संवरना

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कोमल भाव, शाब्दिक श्रंगार, सुन्दर संप्रेषण।

Udan Tashtari said...

सुन्दर गीत!

Pawan Kumar said...

jkesh ji
बहुत सुन्दर छद . नए प्रतीकों के साथ चलते शब्दों के इस सफ़र में अभिव्यक्तियों का भी अपना मूल्य है.

कौन है जो चाहता है गीत में मेरे संवरना
भावना की उंगलियों को थाम छन्दों में विचरना


कौन है जो सुर मिलाये गुनगुनाहट से मधुप की
कौन तितली के परों पर आप अपना चित्र खींचे
कौन अलसाई दुपहरी की तरह अंगड़ाई लेता
स्वप्न बन आये नयन में,सांझ जब भी आँख मीचे

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