आस का पात्र बस झनझनाता रहा


दिन उगा,ढल गया,रात आई,गई
साँस का कर्ज़ बढ़ता ही जाता रहा

काल के चक्र से बँध गये थे कदम
एक क्षण के लिये भी कहीं न रुके
नीड़ विश्रान्ति को था कहीं पर नहीं
अनवरत चल रहे पांव हारे थके
पंथ पाथेय में राह देता रहा
धुन्ध में डूब गन्तव्य ओझल रहा
दृष्टि छू न सकी दूर फ़ैला क्षितिज
भार पलकों का कुछ और बोझल रहा

इक भुलावा कि गति ज़िन्दगी से बँधी
फ़िर भ्रमित कर हमें मुस्कुराता रहा

शेष होते दिवस की खड़ी  सांझ ले
अपने हाथों में बस आरती के दिये
हर सुबह की उगी धूप ने हर घड़ी
ये छलावे हमें भेंट में ला दिये
मरुथली मेघ थे छत डगर की बने
धूप जलती रही जेठ को ओढ़कर
और हम कैद से मुक्त हो न सके
अपनी खंडित धरोहर का भ्रम तोड़कर

सीढ़ियों से निराशा की गिरते हुए
आस का पात्र बस झनझनाता रहा

हाथ जोड़े हुए शीश अपना झुका
हम समर्पण किये जब हुए थे खड़े
तो विदित हो गया साये अब हो गये
अपनी सीमाओं से कुछ अधिक ही बड़े
भीख मिल न सकी इसलिये, झोलियाँ
एक संकोच में खुल न पाईं कभी
और झूठे हुए दम्भ दीवार बन
एक दिन के लिये भी झुके न कभी

शून्य फ़ैली हथेली की रेखाओं पर
अपना हल लाके फिर फिर चलाता रहा

चाँदनी का नहीं कोई उल्लेख था
शब्द के कोष जितने रहे पास में
ओस की बून्द भी एक घुल न सकी
हर निमिष होंठ पर उग रही प्यास में
टूटती नाव के एक मस्तूल पर
छीर होता हुआ पाल देखा किये
ढूँढ़ते थक गये जिसको अपना कहें
कोई हो एक पल,हम कभी जो जिये

सिन्धु का तीर लहरें बुलाते हुए
हर घरौंदा बनाया, मिटाता रहा

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

यह संमुन्दर गहरा है, मुझमें लहरें उत्पन्न कर रहा है।

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