बात बस इतनी सी थी

उठे प्रश्न अनगिन नयनों में,जबकि बात बस इतनी सी थी
मेरे होंठ गई थी छूकर,हवा चूमने अधर तुम्हारे

हुईं चकित जो नजरें सहसा,उनको यह था ज्ञात नहीं
मेरा और तुम्हारा नाता कल परसौं की बात नहीं
संस्कृतियों के आदिकाल से नवदिन के सोपानों तक
एक निमिष भी विलग अभी तक हुआ हमारा साथ नहीं

असमंजस उग आये हजारों,जबकि बात बस इतनी सी थी
मेरे पग के चिह्न वहीं पर बने,जहाँ थे कदम तुम्हारे

निशियों का तम ले सत्यापित करे समय संबंधों को
अपने हस्ताक्षर अंकित कर,पूनम के उजियारों पर
एक हमारी घुलती सांसों से गति पाकर बहे सदा
पुरबायें, अठखेली सी करती नदिया के धारों पर

उठे हजारों आंधी अंधड़,जबकि बात बस इतनी सी थी
धराशायी हो गयी दृष्टि पल भर थे चूमे नयन तुम्हारे

जो रह जाता दूर प्राप्ति की सीमा से,वह मात्र कल्पना
इसी भ्रान्ति में जीते हैं वे जो बस प्रश्न उठाया करते
पूर्ण समर्पण के भावों में मानस जिस पल ढल जाता है
सीमायें भी खींचा करतीं सीमा रेखा डरते डरते

सांझ सिंदूरी रह न पाई,जबकि बात बस इतनी सी थी
नयन सुरमई हुए स्वयं ही, द्वार आ गये सपन तुम्हारे

3 comments:

Udan Tashtari said...

गज़ब कर दिया भाई जी..आनन्द में भीग उठे.

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़े कोमल भाव, जकड़कर बैठ गये। बाहर कैसे आयें।

विनोद कुमार पांडेय said...

असमंजस उग आये हजारों,जबकि बात बस इतनी सी थी
मेरे पग के चिह्न वहीं पर बने,जहाँ थे कदम तुम्हारे

राकेश जी प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति....शब्द और भाव दोनों बिल्कुल आपने अपने है जो हमेशा से कमाल के होते है गीत में एक आकर्षण है जो बार बार गुनगुनाने को मजबूर करता है...सुंदर गीत के लिए बधाई

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