चांद किरन से की मनुहारें

कलासाधिके तेरे नयनों से फिसली इक दॄष्टि किरन न
मेरे मन के अवसादों में भर दी है उमंग फ़ागुन की

अंबर ने भर कलश तिमिर के जितने ढुलकाये संध्या में
उनका तम रिस रिस कर रंगता था मेरे मन की दीवारे
आशा के जुगनू करवट ले लेकर उनमें रह जाते थे
तोड़ा करती थी दम पल पल चांद किरन से की मनुहारें

अरुण अधर की मुस्कानों की खिली धूप के छीटे खाकर
उन दीवारों पर आ उभरी है मोहक छवियाँ मधुवनकी

बिछी हुईं थी मीलों लम्बी पथ में जो एकाकी राहें
दिशाहीन कदमों की मंज़िल पथ पग पग पर पी जाता था
संध्या के पल हों दोपहरी की बेला हो, उगी भोर हो
सार घड़िया, प्रहर पलों में सूनापन इक छा जाता था

रचे अलक्तक से पांवों का राहों को जो स्पर्श मिल गया
मंज़िल आकर लगी चूमने देहरी स्वयं मेरे आँगन की

शून्य क्षितिज के कैनवास पर रंग बिखर कर रह जाते थे
और तूलिका हो जाती थी चित्र बना पाने में अक्षम
अलगोजे पर बही हवा के,रह रह कर चढ़ने की कोशिश
में फ़िसल फ़िसल कर गिर जाती थी अनगाये गीतों की सरगम

तुमने अपने सुर की सहसा बिखरा दी जो स्वर्ण माधुरी
लगीं छेड़ने सभी दिशायें रागिनियाँ स्वर्गिक वादन की

8 comments:

वाणी गीत said...

लगी छेड़ने सभी दिशायें रागिनियाँ स्वर्गिक वादन की ...
सुन्दर गीत ..!!

विनोद कुमार पांडेय said...

अरुण अधर की मुस्कानों की खिली धूप के छीटे खाकर
उन दीवारों पर आ उभरी है मोहक छवियाँ मधुवनकी

बहुत खूब...एक उत्कृष्ट रचना..सुंदर गीत के लिए बहुत बहुत आभार

Udan Tashtari said...

अलगोजे पर बही हवा के,रह रह कर चढ़ने की कोशिश
में फ़िसल फ़िसल कर गिर जाती थी अनगाये गीतों की सरगम


-बेहतरीन गीत राकेश भाई.

दिलीप said...

bahut khoob sir aaj kal bahut kam log aisa likh rahe hain...hinglish ka jyada istmaal hota hai...dhanyawad....

Shekhar Kumawat said...

अलगोजे पर बही हवा के,रह रह कर चढ़ने की कोशिश
में फ़िसल फ़िसल कर गिर जाती थी अनगाये गीतों की सरगम
तुमने अपने सुर की सहसा बिखरा दी जो स्वर्ण माधुरी
लगीं छेड़ने सभी दिशायें रागिनियाँ स्वर्गिक वादन की

bahut khub



shekhar kumawat


http://kavyawani.blogspot.com

amritwani.com said...

अरुण अधर की मुस्कानों की खिली धूप के छीटे खाकर
उन दीवारों पर आ उभरी है मोहक छवियाँ मधुवनकी

bahut khub

achi rachana


shkehar kumawat

http://kavyawani.blogspot.com/

Pawan Kumar said...

राकेश भाई....शायद उम्दा शब्द इस रचना के लिए कम होगा..........क्या खूब लिखा है....
अंबर ने भर कलश तिमिर के जितने ढुलकाये संध्या में
उनका तम रिस रिस कर रंगता था मेरे मन की दीवारे
आशा के जुगनू करवट ले लेकर उनमें रह जाते थे
तोड़ा करती थी दम पल पल चांद किरन से की मनुहारें
वाह वाह .............बधाई अच्छे लेखन के लिए

संजय भास्‍कर said...

आशा के जुगनू करवट ले लेकर उनमें रह जाते थे
तोड़ा करती थी दम पल पल चांद किरन से की मनुहारें
वाह वाह .............बधाई अच्छे लेखन के लिए

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