धूप के चन्द छींटे मिलें साध ये
एक लिपटी हुई थी सदा ही गले
मिल गई दोपहर हमको बैसाख की
सात पग साथ मिल तुम मेरे जो चले
चाँदनी का पता पूछते पूछते
रात आती रही रात ढलते रह
एक भोली किरण पंथ को भूल कर,
आ इधर जायेगी आस पलती रही
बन के जुगनू सितारे उतरते हुए
राह को दीप्त करते रहे मोड़ पर
सांझ को नित्य ही कातती रात थी,
अपना चरखा वहीं चाँद पर छोड़कर
यों लगा सांझ भी चाँदनी हो ग
रात की मांग में जड़ सितारे गये
भोर के दीप फिर जगमगाने लगे
तय किये हमने मिल जब सभी फ़ासले
सिन्धु के तीर पर मैं बिछा था हुआ
पग परस के लिये आतुरा रेत सा
सीपियों का निमंत्रन अधूरा रहा
शंख का एक ही शेष अवशेष था
मोतियों सी भरी एक थाली लिये
तुम उमड़ती हुई बन लहर आ गये
बात तट से तरंगे कभी जो करीं
तुम उन्हें रागिनी में पिरो गा गये
यों मिलन की बजी जलतरंगे नधुर
रागमय हो गई प्राण की बांसुरी
पंचियों के परों से बरसते हुए
सुर नये आ गये ताल में फिर ढले
तुलसियों पर जले दीपकों से जुडी
मन्नतें एक वरदान में ढल गई
साध जो सांझ की वन्दना में घुली
एक आशीष बन शीश पर खिल गई
चातकी प्यास थी एक ही बूँद की
स्वाति का एक सावन उमड़ आ
एक पांखुर उठाने बढे हाथ थे
बाह में पूर्ण मधुवन सिमट आ गया
डोर बरगद पे बाँधी, बनी ओढ़नी
आस ने जो रखे, वे कलश भर गये
छांह में पीपलों की संवरने लगे
फिर वही पल रहे जो थे मंडवे तले
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6 comments:
राकेश जी जितनी तारीफ करूँ कम है क्या भाव पिरोते है आप, सुंदर भाव के साथ पूरी तरह से लयबद्ध बस पढ़ते ही जाओ बिना किसी रुकावट के और उसके बाद महसूस करे कविता खूबसूरती...वाह राकेश जी बहुत खूब..सुंदर रचना..बधाई!!
एक शब्द:
अद्भुत!!
बस्स!!!
’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
सुन्दर रचना!
उत्कर्षों के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ।
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ।।
पगदण्डी है कहीं सरल तो कहीं विरल है,
लक्ष्य नही अब दूर, सामने ही मंजिल है,
जीवन के विज्ञानशास्त्र को पढ़ते जाओ।
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ।।
WAAH !!! SARAL SARAS SNIGDH APRATIM PRANAYGEET !!!!
AAPKO SAPARIWAAR NAV VARSH KI ANANT SHUBHKAMNAYEN....
सुन्दर गीत!
कुछ बिम्ब कितने सुंदर हैं! आपको कैसे सूझता है ये सब ?
धूप के छींटे ... कितना सुन्दर!!
"सिन्धु के तीर पर मैं बिछा था हुआ
पग परस के लिये आतुरा रेत सा"
...ये अद्भुत !
पंछियों के परों से सुर बरसें ... ये आप ही कर सकते हैं गुरुदेव !
"तुलसियों पर जले दीपकों से जुडी
मन्नतें एक वरदान में ढल गई
साध जो सांझ की वन्दना में घुली
एक आशीष बन शीश पर खिल गई"
मुझे ये बहुत अच्छा लगा :)
कुछ प्रश्न: बैसाख की दोपहर क्या भली मानी जाती है?
"बात तट से तरंगे कभी जो करीं", सही हिन्दी है क्या ये ? या पोएटिक लाईसेंस है :)
गुरुजी, अगर मैं भूल नहीं कर रही तो आदरणीय गुलाब खंडेलवाल जी के जन्मदिन पे लिखी हुई कविता है ये :)
आपको और घर में सबको नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
आपको कैसे सूझता है ये सब? शार्दूला जी के साथ मैं भी जानना चाहूँगा.
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