गीत रागिनी आ गाती है

स्वप्न तुम्हारे हो जाते हैं जब आकर पलकों में बन्दी
तब संभव है कहाँ दूसरा चित्र नयन में बनने पाये
नाम तुम्हारा ढल जाता है जब हर अक्षर के सांचे में
तब फिर गीत दूसरा कैसे यह मेरा पागल मन गाये

ओ परिभाषित तुमसे ही तो सब सन्दर्भ जुड़े हैं मेरे
मेरे चेतन अवचेतन के हर पल में बस व्याप्त तुम्ही हो

आरोहित होती सरगम की सुरलहरी जब अँगड़ाई ले
उठती है तब बोल तुम्हारे पिरो रागिनी में जाती है
और तुम्हारे बिखरे कुन्तल से फ़िसली कजराई लेकर
आंखों में आंजा करती है सांझ, निशा में ढल जाती है

ओ प्रभावमय दिवस निशा का है गतिमान चक्र तुमसे ही
मानस के पट पर जो कुछ है ज्ञात और अज्ञात तुम्ही हो

पगतलियों के चुम्बन से यों मांग सजा लेती हैं राहें
लग जाती है खिलने चारों ओर स्वयं फूलों की क्यारी
पैंजनियों से बातें करने को लालायित हुई हवायें
अपने साथ भेंट में लेकर आती गंधों भरी पिटारी

ओ मधुशिल्पित ! स्पर्श तुम्हारा करता सुधापूर्ण जीवन को
जो अनाम वह तुमही तो हो और सर्व विख्यात तुम्ही हो

5 comments:

Udan Tashtari said...

पगतलियों के चुम्बन से यों मांग सजा लेती हैं राहें
लग जाती है खिलने चारों ओर स्वयं फूलों की क्यारी
पैंजनियों से बातें करने को लालायित हुई हवायें
अपने साथ भेंट में लेकर आती गंधों भरी पिटारी


--आपके शब्दकोश को नमन करने के सिवाय मेरे पास कोई रास्ता नहीं...नत मस्तक हूँ. अहसासिये, प्लीज!!

निर्मला कपिला said...

पगतलियों के चुम्बन से यों मांग सजा लेती हैं राहें
लग जाती है खिलने चारों ओर स्वयं फूलों की क्यारी
पैंजनियों से बातें करने को लालायित हुई हवायें
अपने साथ भेंट में लेकर आती गंधों भरी पिटारी
वाह बहुत सुन्दर शुभकामनायें

Shardula said...

कभी तो थोड़ा कम अच्छा लिखा कीजिए कि हम कह सकें कि आज की कविता ठीक-ठाक ही है!
बहुत ही मधुर कविता फिर से :)
ज़रा चौथी पंक्ति देखिएगा, ये दो बार 'फिर' जानबूझ के लिखा है या oversight है?
इस बार देख रहे हैं कि आप कुछ नए संबोधन ले के आये हैं. सोच रहे हैं, कैसे कोई एक साथ परिभाषित, अनाम, विख्यात, प्रभावमय और मधुशिल्पिल हो सकता है :)!
इस एक पंक्ति पे कितने ही गीत न्यौछावर: "मानस के पट पर जो कुछ है ज्ञात और अज्ञात तुम्ही हो"
और ये बहुत ही cute और बच्चों जैसा :
"पैंजनियों से बातें करने को लालायित हुई हवायें
अपने साथ भेंट में लेकर आती गंधों भरी पिटारी"
और ये पंक्तिया गौरवान्वित करती हैं लेखक को भी, पाठक को भी और आपकी muse को भी:
"ओ मधुशिल्पित ! स्पर्श तुम्हारा करता सुधापूर्ण जीवन को
जो अनाम वह तुमही तो हो और सर्व विख्यात तुम्ही हो"
अतिसुन्दर! अतिसुन्दर!

विनोद कुमार पांडेय said...

Kuch der se pahuncha magar pahunchana to tha hi ab to aapki blog mere favorite me shamil ho gayi hai..

geet raagini aa jati hai..

bahut badhiya prstuti..sundar bhav..
itana sundar geet prstut karane ke liye aapka bahut bahut aabhar

Kusum Thakur said...

"ओ परिभाषित तुमसे ही तो सब सन्दर्भ जुड़े हैं मेरे
मेरे चेतन अवचेतन के हर पल में बस व्याप्त तुम्ही हो"


बहुत ही भावपूर्ण कविता है ।

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