फूल उम्मीद के खिलते ही रहे हर सुबह
सांझ ले जाती रही बीन के पांखुर पांखुर
बात होठों पे मचलती तो रही शब्द बने
साथ देने को गले से न उठा लेकिन सुर
हमने गमलों में सदा चांद किरण बोई हैं
और चाहा है खिलें फूल सितारों के ही
हमने आशायें दिवाली के दियों में पोईं
और चाहा है रहें राह बहारों की ही
स्वप्न की झील में रातों को लगाते गोते
सूर्य से रोज सुबह मांगा है मोती हमने
ओस की बून्दों में ढूँढ़े हैं सदा हीरकनी
चाह का शैल नहीं पल भी दिया है गलने
पर दुपहरी में मरुस्थल के किसी पनघट सी
रिक्त रह जाती रही बांधी हुई हर आंजुर
कांच के टुकड़ों से छितरी हुई किरणें लेकर
हमने आशा की दुल्हन के हैं सजाये गहने
ज्ञात ये हो भी ग्या सूख रहे हैं उद्गम
एक निर्झर जो बहा उसको दिया है बहने
मानते आये निशा जब भी कदम रखती है
कुमकुमे आप ही जलते हैं रोशनी झरती
एक विधना की उंगलियों की थिरक है केवल
ज़िन्दगी जिसके इशारे पे रही है चलती
आज को भूल गये कल क्या लिये आयेगा
बस यही जान सकें होते रहे हैं आतुर
हम तमाशाई बने देख रहे हैं जीवन
पात्र बन पायें कभी, हो न सका है साहस
हम स्वयं राह बनायें न हुआ है चाहा
कोई निर्देश हमें देके दिखा जाये बस
अपनी बांहों में भरे एक कली की खुश्बू
हम रहे उलझे कथाओं में परी वाली जो
अपनी आशा के उजालों में पिरो कर रातें
अपने ही घेरे में रहते हैं सदा ही हम खो
साज के तार को उंगली न कभी छेड़ी है
किन्तु चाहे हैं खनकते ही रहेंगे नूपुर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
शिल्पकारों का सपना संजीवित हुआ एक ही मूर्त्ति में ज्यों संवरने लगा चित्रकारों का हर रंग छू कूचियां, एक ही चित्र में ज्यों निखरने लगा फागुनी ...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
5 comments:
मानव-मन की आशाओं,अभिलाषाओं और जीवन के निर्मम यथार्थ के टकराव से उपजे यथार्थ-बोध का सटीक चित्रण। बधाई।
पर दुपहरी में मरुस्थल के किसी पनघट सी
रिक्त रह जाती रही बांधी हुई हर आंजुर
behad sunder,jadui kalam hai.
आशा और विश्वास का बंधन-एक अद्भुत कृति!!
आज को भूल गये कल क्या लिये आयेगा
बस यही जान सकें होते रहे हैं आतुर
हमने गमलों में सदा चांद किरण बोई हैं
ये पंक्ति बहुत सुंदर बन पड़ी है । आपके गीतों का माधुर्य बरबस ही खींच लेता है ।
आपके इस गीत को सुनने में जो मज़ा है वह पढने में नहीं है :)
पहली बार पढा था तो सच कहूं गीत की लय समझ ही नहीं आ रही थी, अब आपको सुना तो समझ आया !
कुछ बहुत सुन्दर बिम्ब हैं गीत में:
चाँद किरन बोना, सूर्य से मोती मांगना !
सादर शार्दुला, ३० जुलाई ०९
P.S: कुमकुमों का जलना समझ नहीं आया गुरुदेव!
Post a Comment