उसका चढ़ा सांस पर कर्ज़ चुकाऊँ

सरगम का हर स्वर रह जाता है घुट कर जब रुँधे कंठ में
तब कैसे है संभव अपने गीतों को मैं तुम्हें सुनाऊँ

पा न सका आशीष नीड़ से जब आँखों का कोई सपना
अंगनाई ने नहीं सांत्वना वाला हाथ रखा काँधों पर
छिदों भरी गगन की चादर, नहीं ओढ़नी बन पाई जब
लगे रहे अनगिनती पहरे जब मन की क्वांरी साधों पर

तब जिस टूटी हुई आस ने बढ़ कर मेरी उंगली थामी
सोच रहा हूँ कैसे उसका चढ़ा सांस पर कर्ज़ चुकाऊँ

पनघट के द्वारे से लौटी, आशाओं की रीती गागर
रत्नाकर ने निगले भोली सीपी के सोनहरे सपने
मेघों के उच्छवासों में घुल गईं सावनों की मल्हारें
बातों की कल्पना मात्र से लगे होंठ रह रह कर कँपने

तब मन की सूनी क्यारी में उगी एक कोंपल जो फिर फिर
सोच रहा हूँ कैसे उसका दॄढ़ निश्चय, मैं भी दुहराऊँ

अक्षत पुष्प सभी बिखरे जब सौगंधों के गंगा तीरे
आरति के मंत्रों की ध्वनि से सजी न मन्दिर की अँगनाई
छोड़ गई जब एक दिये को जलता हुआ राह में बाती
समो गई प्राची में ही जब बिखरी नहीं तनिक अरुणाई

उस पल ढहती हुई आस्था के अतिरेकों ने जो सम्बल
दिया, उसे मैं सोच रहा हूँ किस सिंहासन पर बिठलाऊँ

19 comments:

Shar said...

Guruji !!

अमिताभ मीत said...

सरगम का हर स्वर रह जाता है घुट कर जब रुँधे कंठ में
तब कैसे है संभव अपने गीतों को मैं तुम्हें सुनाऊँ.....

तब जिस टूटी हुई आस ने बढ़ कर मेरी उंगली थामी
सोच रहा हूँ कैसे उसका चढ़ा सांस पर कर्ज़ चुकाऊँ....

अक्षत पुष्प सभी बिखरे जब सौगंधों के गंगा तीरे
आरति के मंत्रों की ध्वनि से सजी न मन्दिर की अँगनाई
छोड़ गई जब एक दिये को जलता हुआ राह में बाती
समो गई प्राची में ही जब बिखरी नहीं तनिक अरुणाई

उस पल ढहती हुई आस्था के अतिरेकों ने जो सम्बल
दिया, उसे मैं सोच रहा हूँ किस सिंहासन पर बिठलाऊँ.....

ओह ! कविवर !! ये गीत आप को आज ही क्यों पोस्ट करना था ? निःशब्द हूँ ... कुछ कह नहीं सकता ...

Shar said...

मृगमरिचिका से लौटे

पावों ने हमको सिखाया

पानी भरी इन थालियों ने

चन्द्र का बस बिम्ब पाया !

Shar said...

On second thoughts . . .

लेकिन बिम्ब ना हों जीवन में
ना हों श्रद्धा की प्रतिमायें
मोर-पंखी हों कैसे तन-मन ?
कहाँ गर्व भरे सर झुक पायें ?

जो अवलम्बन आशा के हैं
शीश धरें और उन्हें निखारें
गुरुवर सबसे श्रेष्ठ आप हैं
जीवन के प्रतिमान संवारें !

विवेक सिंह said...

अच्छा लगा .

Udan Tashtari said...

सरगम का हर स्वर रह जाता है घुट कर जब रुँधे कंठ में
तब कैसे है संभव अपने गीतों को मैं तुम्हें सुनाऊँ.....



-जबरदस्त!! कोई शब्द उपलब्ध नहीं तारीफों को!!!

बस, वाह कह कर गुजर करेंगे!!!

seema gupta said...

तब जिस टूटी हुई आस ने बढ़ कर मेरी उंगली थामी
सोच रहा हूँ कैसे उसका चढ़ा सांस पर कर्ज़ चुकाऊँ
"what to say, i am speechless....."

Regards

पुनीत ओमर said...

बहुत सुंदर भाव...
आखिरी दो पंक्तियाँ भा गई.

Anonymous said...

शब्दों से मिलकर भी अधूरे रहते हैं शब्द

रंजू भाटिया said...

बहुत बढ़िया लगी यह पंक्तियाँ

पनघट के द्वारे से लौटी, आशाओं की रीती गागर
रत्नाकर ने निगले भोली सीपी के सोनहरे सपने
मेघों के उच्छवासों में घुल गईं सावनों की मल्हारें
बातों की कल्पना मात्र से लगे होंठ रह रह कर कँपने

पंकज सुबीर said...

अक्षत पुष्प सभी बिखरे जब सौगंधों के गंगा तीरे
आरति के मंत्रों की ध्वनि से सजी न मन्दिर की अँगनाई
छोड़ गई जब एक दिये को जलता हुआ राह में बाती
समो गई प्राची में ही जब बिखरी नहीं तनिक अरुणाई
राकेश जी मुझे ऐसा लगता है कि आपने कसम खा ली है कि किसी को भी गीत नहीं लिखने देंगें क्‍योंकि सारे भाव सारे शब्‍द सारी कल्‍पनायें तो आप पहले ही उड़ा ले जाते हैं दूसरों के लिये बचता ही क्‍या है जो वो लिख सके । हर बार की ही तरह एक और शानदार गीत । बधाई
मुझे लगता है कि अमेरिका आकर आपकी कलम चुरानी पड़ेगी किसी बहाने से । या फिर समीर जी को ही सुपारी दे देता हूं कि किसी बहाने से आपकी कलम चुराते हुए लायें । मैंने किसी और ब्‍लाग पर टिप्‍पणी की है कि गीत में राकेश खण्‍डेलवाल जी ग़ज़ल में नीरज गोस्‍वामी जी और व्‍यंग्‍य में समीर लाल जी ये तीनों ही सरताज की उपाधी प्राप्‍त कर चुके हैं ( बिनाका गीतमाला में हुआ करता था एक सरताज गीत ) । आशा है नए घर में आनंद आ रहा होगा और विशाल घर में विचारों का प्रवाह और तीव्र हो रहा होगा । आपने एक बात नहीं बताई कि अंधेरी रात का सूरज पर आदरणीय भाभीजी और बिटिया रानी की क्‍या प्रतिक्रिया रही । इसलिये क्‍योंकि आदमी के सबसे अच्‍छे आलोचक उसके घर में ही होते हैं जो उसका सबसे सटीक आकलन करते हैं ।
आपका पत्र प्राप्‍त हो गया है धन्‍यवाद
पंकज सुबीर

Dr. Amar Jyoti said...

'तब मन की सूनी क्यारी में……' अद्भुत! भव्य! और क्या कहूं? शब्दों पर मेरा ऐसा अधिकार कहां!

रंजना said...

पीड़ा शब्दों के आवरण ओढे सजीव नयनाभिराम हो उठी. अतिसुन्दर..........अद्भुद पंक्तियाँ हैं.

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah saab wah...
khoobsurat geeti rachna
badhaiiiii

Satish Saxena said...

मैं भी पंकज सुबीर साहब से सहमत हूँ !

बवाल said...

Aadarneey,
kitnee mohakta se marm ko sanjo rahee hai aapkee ye rachna. Main kah hee chukaa hoon ke aapkee taareef karne kee himmat hee nahin padtee, gurujee. Abhibhoot hue jee. Kya kahna !

बवाल said...

Han jee ek baat aur main yahan ustaad Pankaj Subeer jee kee Teep men kahee gayee har baat se poora ittefaak rakhta hoon. Sahi kahte hain vo ke aap teenon hee sartaaj ho.

गौतम राजऋषि said...

कई दिनों से चुपके-चुपके पढ़ कर निकल जाता था कि तारिफ़ भी करूं तो क्या और कितनी.आज रहा नहीं गया....अक्षत पुष्प सभी बिखरे जब सौगंधों के गंगा तीरे/आरति के मंत्रों की ध्वनि से सजी न मंदिर की अंगनाई....
...और मैं फिर-फिर से मंत्र-मुग्ध इन शब्दों की शिल्पकारी पर.
बेसब्री से प्रतिक्षा में हूँ किताब की जो पंकज जी ने पोस्ट कर दी है मेरे पते पर

Mohinder56 said...

राकेश जी,
मानवीय आस्थाओं और भावों का अदभुत चित्रण..
अन्तिम दो पंक्तियां सशक्त सार बन का दीपायमान होती हुई

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...