व्यक्ति बन कर आ प्रथम तू

चाहना तो है पुजू मैं देवता बन कर किसी दिन
चेतना पर कह रही है व्यक्ति बन कर आ प्रथम तू

आईना तो ज्ञात तुमको झूठ कह सकता नहीं है
ताल में जो रुक गया जल,धार बान सकता नहीं है
मंज़िलों के द्वार तक जाते कहां हैं चिन्ह पथ के
हो गया जड़ जो, कभी गतिमान हो सकता नहीं है

साध तो यह पल रही है रागिनी नूतन रचूँ मैं
चेतना पर कह रही है एक सरगम गा प्रथम तू

जो कि है क्षमता सिमटता सिर्फ़ उतना मुट्ठियों में
ज्ञान की सीमा सदा उलझाये रखती गुत्थियों में
चादरों से बढ़ गये जो बस वही तो पांव ठिठुरे
फ़ूट कब पाते कहो अंकुर बची जो थुड्डियों में


चाहना तो है सजूँ हर होंठ पर मैं गीत बनकर
चेतना पर कह रही है, शब्द बन कर आ प्रथम तू

बालुओं की नींव पर प्रासाद कितनी देर टिकते
और पत्थर भी कहां पर स्वर्ण के हैं भाव बिकते
ज्ञात हो असमर्थता पर चाँद को चाहें पकड़ना
इस तरह विक्षिप्त कितने सामने आ आज दिखते

चाहना तो है बनूँ मैं शिल्प का अद्भुत नमूना
चेतना पर कह रही है, चोट कोई खा प्रथम तू

12 comments:

Anonymous said...

चाहना तो है सजूँ हर होंठ पर मैं गीत बनकर
चेतना पर कह रही है, शब्द बन कर आ प्रथम तू

अमिताभ मीत said...

चाहना तो है बनूँ मैं शिल्प का अद्भुत नमूना
चेतना पर कह रही है, चोट कोई खा प्रथम तू

सुर्खरू होता है इंसान ठोकरें खाने के बाद ....

कविवर, हमेशा की तरह खूबसूरत. सुबह सुबह पढ़ लेता हूँ और दिन और दिन भर अच्छा लगता है.

रंजू भाटिया said...

चाहना तो है सजूँ हर होंठ पर मैं गीत बनकर
चेतना पर कह रही है, शब्द बन कर आ प्रथम तू

बहुत खूब बढ़िया लिखा है आपने

नीरज गोस्वामी said...

साध तो यह पल रही है रागिनी नूतन रचूँ मैं
चेतना पर कह रही है एक सरगम गा प्रथम तू
साधू...साधू...कविता क्या है पूरा जीवन दर्शन है....वाह...कमाल है राकेश जी...माँ सरस्वती सदा आप पर यूँ ही मेहरबान रहे...
नीरज

Alpana Verma said...

बालुओं की नींव पर प्रासाद कितनी देर टिकते
और पत्थर भी कहां पर स्वर्ण के हैं भाव बिकते
ज्ञात हो असमर्थता पर चाँद को चाहें पकड़ना
इस तरह विक्षिप्त कितने सामने आ आज दिखते........wah! bahut hi achchee kavita hai--gahari soch hai.

कंचन सिंह चौहान said...

चाहना तो है पुजू मैं देवता बन कर किसी दिन
चेतना पर कह रही है व्यक्ति बन कर आ प्रथम तू

चाहना तो है बनूँ मैं शिल्प का अद्भुत नमूना
चेतना पर कह रही है, चोट कोई खा प्रथम तू

kya kahu.n....fir vahi shabdalpata ki samasya

Neelima said...

बहुत बढिया !

Abhishek Ojha said...

बहुत सुंदर !

Udan Tashtari said...

अति सुन्दर, भाई जी. बहुत खूब!!

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत ही सुन्दर। शिल्प के अद्भुत नमूने तो आप पहले से ही हैं उस पर इतने उदात्त भाव। सोने में सुहागा।

रंजना said...

जो कि है क्षमता सिमटता सिर्फ़ उतना मुट्ठियों में
ज्ञान की सीमा सदा उलझाये रखती गुत्थियों में
चादरों से बढ़ गये जो बस वही तो पांव ठिठुरे
फ़ूट कब पाते कहो अंकुर बची जो थुड्डियों में

..........
अतिसुन्दर......अद्भुद........और क्या कहूँ......

Anonymous said...

the last line is just out of the world

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