नहीं संभव रहा

नहीं संभव रहा अब लौट कर उस द्वार तक जाना

गली जिसमें हमारे पांव के उगते निशां हर पल
वो पीपल, पात जिसके छांव करते शीश बन आंचल
कुंए की मेंड़ जिसने गागरें प्यासी भरीं अनगिन
वो मंदिर द्वार पर जिसके कभी लगती नहीं आगल

नहीं संभव रहा अब धुन्ध से उनका उभर आना

दिये की लौ, खनकती घंटियां चौपाल की बातें
वो बमलहरी की स्पर्धायें लिये संगीतमय रातें
सुबह की आरती मंगल सिराना दीप नदिया में
हजारों मन्नतों की बरगदों की शाख पर पांतें

नहीं संभव रहा साकार अब वह दॄश्य कर पाना

गली में टेसुआ गाती दशहरे की कोई टोली
संवरती सूत,कीकर,घूघरी से रंगमय होली
रँगे रांगोलियों से वे तिवारे, आंगना, देहरी
शह्द डूबी वो मिश्री की डली जैसी मधुर बोली

नहीं संभव रहा फिर से इन्हें अनुभूत कर पाना
नहीं संभव रहा अब लौट कर उस गांव में जाना

14 comments:

Manvinder said...

बहुत अच्छा लिखा है...सुंदर भाव है.....
लाजवाब......

रंजू भाटिया said...

बहुत सुंदर ..बहुत सी बातो को याद कराती है यह रचना

Udan Tashtari said...

सन्नाट याने लाजबाब..बेहतरीन!! आपके शब्दकोष में सन्नाट शब्द बढ़वा रहा हूँ, कृप्या आभार व्यक्त किजियेगा, :)

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत ही सुन्दर! बचपन की यादें ताज़ा हो गईं।

seema gupta said...

नहीं संभव रहा फिर से इन्हें अनुभूत कर पाना
नहीं संभव रहा अब लौट कर उस गांव में जाना
" bhut bhut sunder, bhav purn rachna, sach mey barson ho gye gavn ka rukh kiye, sub kuch vheen reh gya jaise"

Regards

संगीता पुरी said...

बचपन की यादे ताजा हो गयी। बिल्कुल यही माहौल था हमारे यहां भी।

पारुल "पुखराज" said...

kitney bhuuley -bisrey -apney apney se bol....aabhaar

फ़िरदौस ख़ान said...

गली में टेसुआ गाती दशहरे की कोई टोली
संवरती सूत,कीकर,घूघरी से रंगमय होली
रँगे रांगोलियों से वे तिवारे, आंगना, देहरी
शह्द डूबी वो मिश्री की डली जैसी मधुर बोली

बहुत ख़ूब...

रंजना said...

अति सुंदर.....पूरी गीत ही सुंदर है पर मन में हूक सी उठाती अन्तिम दोनों पंक्तियाँ अप्रतिम हैं.

शोभा said...

गली में टेसुआ गाती दशहरे की कोई टोली
संवरती सूत,कीकर,घूघरी से रंगमय होली
रँगे रांगोलियों से वे तिवारे, आंगना, देहरी
शह्द डूबी वो मिश्री की डली जैसी मधुर बोली
अति सुंदर लिखा है. रचना दिल को छू गई. सस्नेह .

नीरज गोस्वामी said...

अद्भुत रचना राकेश जी...अद्भुत...आप की अपने गावं देश से दूरी की छ्ट्पटाहट, पीड़ा दिखाई देती है इस रचना में और आप की क्यूँ ऐसे सभी जो अपनी मिटटी से दूर रहने को विवश हैं वे सभी इसमें अपने मन के भाव देख सकते हैं...शब्दों पर आप का अधिकार विस्मयकारी है....सच.
नीरज

ललितमोहन त्रिवेदी said...

नहीं संभव रहा फिर से इन्हें अनुभूत कर पाना
नहीं संभव रहा अब लौट कर उस गांव में जाना !
आपकी टीस मन को उद्वेलित कर गई, पर अब गाँव भी वो गाँव नहीं रहे खंडेलवाल जी !जो मीठी स्म्रतियां आपने याद दिला दी है इतनी भावपूर्ण रचना के माध्यम से ,उसके लिए बधाई स्वीकारें !बहुत प्यारी रचना है !

कंचन सिंह चौहान said...

जवाब मे कहने का मन हो रहा है कि
" चले आओ कि तुमको नीम की छाया बुलाती है,
बहुत रफ्तार में जीवन हमारा भी तुम्हारा भी"
-अज्ञात

Shar said...

Guruji,
Ganv ka rustic chitran, par kitna idyllic! Aur yeh bhi kitna sach ki hum jasie NRI kitna vapas jana chaate hein gaanv?
Sach hei jo door hota hei woh hi suhaata hei.
Samay ka sheesha har burayee ko doh sa jaata hei.
Kyon hum nahin likhte in concrete ke saharon pe,
woh he hai jo hamare ghar ko chalata hei!
========
Marg dikhlayee Guruji, bhramit hoon :(
Is bhaav-badhaa se kaise nikloon??

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