कोई गीत नहीं बन पाया

फूल पिरोते रहे भाव के धागे लेकर रोजाना हम
लेकिन पांखुर पांखुर बिखरीं कोई गीत नहीं बन पाया

अक्षर अक्षर संयोजित कर
शब्द बनाया पंक्ति न बनी
रही भावना-अभिव्यक्ति में
निमिष निमिष पर यहाँ बस ठनी
छंदों की नगरी वाले पथ
छूट गये थे मानचित्र से
और दिशाओं के निर्देशक
ठाने बैठे रहे दुश्मनी

अधरों पर प्रतिबन्ध लगाते रहे नियम सामाजिकता के
जो थी मन में बात, शब्द वह नहीं होंठ पर लेकर आया

जागी हुई कामनाओं के
चित्र नयन में आ बन जाते
और आँख में पलते सपने
आकर सिन्दूरी कर जाते
लेकिन कटु यथार्थ की आंधी
देती जब सुधियों पर दस्तक
महज ताश के पतों जैसे
पलक झपकते ही ढह जाते


सोच रहे थे ढूँढ़ें किस्मत को हम दीप जलाकर पथ में
लेकिन किस्मत, सजा थाल मेम दीप एक भी जल न पाया

अभिलाषा ! सरगम हर दिन को
बैठी रहे बाँह में लेकर
और यामिनी रहे सुहागन
पहने निशिगंधों के जेवर
आशा के अंकुर दुलरावें,
आ आ करके नित्य बहारें
घटा घिरे जब भी आँगन में
बदली रही हमेशा तेवर

जो अपने अनुकूल अर्थ दे, ऐसा शब्दकोश चाहा था
लेकिन जब भी खोला उसको, हर प्रतिकूल अर्थ ही पाया

10 comments:

Udan Tashtari said...

सोच रहे थे ढूँढ़ें किसमत को हम दीप जलाकर पथ में
लेकिन किस्मत सजा थाल में दीप एक भी जल न पाया...


अद्भुत और अद्वितीय रचना....गजब!! बहुत जबरदस्त...शब्द नहीं हैं हमेशा की भाँति..बस यूँ ही फिर भी अपनी भावना रखने की कोशिश-हमेशा की भाँति---मंतव्य आप समझते हैं, इसके लिए आशांवित हूँ.

राजीव रंजन प्रसाद said...

आदरणीय राकेश जी...


"लेकिन पांखुर पांखुर बिखरीं कोई गीत नहीं बन पाया"

आपकी रचनाओं की प्रशंसा के लिये उपमाये बमुश्किल ही मिल पाती हैं..

***राजीव रंजन प्रसाद

Anonymous said...

अधरों पर प्रतिबन्ध्लगाते रहे नियम सामाजिकता के
जो थी मन में बात, शब्द वह नहीं होंठ पर लेकर आया
bahut sunder

Anil Pusadkar said...

bhav piro gaye aap shabdon ke dhaage se.sunder rachana

Dr. Amar Jyoti said...

'जो अपने अनुकूल अर्थ दे…'- मानव-मन की आकांक्षाओं और उपलब्धियों की द्वन्द्वात्मकता की मुखर अभिव्यक्ति !हार्दिक बधाई।

रंजू भाटिया said...

जागी हुई कामनाओं के
चित्र नयन में आ बन जाते
और आँख में पलते सपने
आकर सिन्दूरी कर जाते
लेकिन कटु यथार्थ की आंधी
देती जब सुधियों पर दस्तक
महज ताश के पतों जैसे
पलक झपकते ही ढह जाते

यही जीवन का कटु सत्य है ..जो आपकी इन पंक्तियों में बहुत खूबसूरती से लिखा गया है

seema gupta said...

सोच रहे थे ढूँढ़ें किसमत को हम दीप जलाकर पथ में
लेकिन किस्मत सजा थाल मेम दीप एक भी जल न पाया
" really comendable, or kya khun.."

Regards

कंचन सिंह चौहान said...

जो अपने अनुकूल अर्थ दे, ऐसा शब्दकोश चाहा था
लेकिन जब भी खोला उसको, हर प्रतिकूल अर्थ ही पाया

bahut khubsurat, hamesha ki tarah

Satish Saxena said...

..........लेकिन पांखुर पांखुर बिखरीं कोई गीत नहीं बन पाया !

वाह वाह ! क्या खुबसूरत शब्द पिरोये हैं राकेश जी !

शोभा said...

अभिलाषा ! सरगम हर दिन को
बैठी रही बाँह में लेकर
और यामिनी रहे सुहागन
पहने निशिगंधों के जेवर
आशा के अंकुर दुलरावें,
आ आ करके नित्य बहारें
घटा घिरे जब भी आँगन में
बद;ई रही हमेशा तेवर
बहुत सुन्दर

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