होठों पे उगती रही प्यास भी

खुश्कियाँ मरूथलों की जमीं होंठ पर शुष्क होठों पे उगती रही प्यास भी
आपके होंठ के स्पर्श की बदलियां पर उमड़ के नहीं आ सकीं आज भी

नैन पगडंडियों पर बिछे रह गये मानचित्रों में उल्लेख जिनका न था
इसलियी आने वाला इधर की डगर राह भटका हुआ एक तिनका न था
चूमने पग कहारों के, मखमल बनी धूल, नित धूप में नहा संवरती रही
गंध बन पुष्पकी बाँह थामे हवा कुछ झकोरों में रह रह उमड़ती रही

सरगमें रागिनी की कलाई पकड़ गुनगुनाने को आतुर अटकती रहीं
उंगलियों की प्रतीक्षा मे रोता हुआ मौन होकर गया बैठ अब साज भी

रोलियां, दीप, चन्दन,अगरबत्तियाँ ले सजा थाल आव्हान करते रहे
आपके नाम को मंत्र हम मान कर भोर से सांझ उच्चार करते रहे
दिन उगा एक ही रूप की धूप से कुन्तलों से सरक आई रजनी उतर
केन्द्र मेरी मगर साधना के बने एक पल के लिये भी न आये इधर

घिर रही धुंध में ढूँढ़ती ज्योत्सना एक सिमटे हुए नभ में बीनाईयां
स्वप्न कोटर में दुबके हुए रह गये ले न पाये कहीं एक परवाज़ भी

हाथ में शेष, जल भी न संकल्प का धार नदिया की पीछे कहीं रूक गई
तट पे आकर खड़ी जो प्रतीक्षा हुई जो हुआ, होना था मान कर थक गई,
जो भी है सामने वह प्लावित हुआ बात ये और है धार इक न बही
जानते हैं अधूरी रहेगी सदा साध, जिसको उगाते रहे रोज ही

खो चुका है स्वयं अपने विश्वास को, थाम विश्वास उस को, खड़े हैं हुए
ठोकरें खाके संभले नहीं हैं कभी हम छलावों में उलझे हुए आज भी

9 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

आपकी भारी भारी कविताओं को पढ़कर आज के युग के पंत और प्रसाद की याद ताजा हो जाती है।

Anonymous said...

.......अति सुंदर,सार्थक अभिव्यक्ति....... इतनी अमूल्य रचना हेतु आभार.....

राजीव रंजन प्रसाद said...

आदरणीय राकेश जी,


आपके गीतों का तो मैं कायल हूँ ही, आपके बिम्ब चमत्कृत कर देते हैं। आपकी रचनायें "एक संस्था" की तरह मार्गदर्शक हैं..


***राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

हमारे तीन दिन के अवकाश से आने के बाद इतनी उम्दा रचना पेश करेंग..मालूम हो तो हर हफ्ते अवकाश पर चले जायें!! बस, बता ही दिजिये अब तो!! गजब गजब!!! सुपर्ब!!! वाह!!!

Satish Saxena said...

इंतज़ार का बेहतरीन शब्दचित्र पेश किया है आपने !

रंजू भाटिया said...

सुबह सुबह इतनी बेहतरीन रचना पढ़ने को मिल जाए तो दिन सार्थक है :) बहुत सुंदर लिखा है आपने राकेश जी

Anil Pusadkar said...

tat pe aakar khadi jo prateeksha hui jo hua,hona tha maan kar thak gayi...kya baat hai...sunder

Akanksha Jaiswal said...

I AM VERY GLAD OF YOUR COMMENT

पंकज सुबीर said...

मैं सोचा करता था कि सकारात्‍मक सोमवार कैसे करूं कि पूरा सप्‍ताह ही सकारात्‍मक होकर निकले लेकिन अब समझ में आ गया है कि हर सोमवार को आकर आपकी कविता सबसे पहे पढूंगा उससे मन शांत हो जाता है और पूरे सप्‍ताह जूझने का हौसला मिल जाता है । आशा है हर सोमवार को कुछ नया मिलता रहेगा । आपकी कविताएं काफी अच्‍छे बिम्‍बों को लिये रहती हैं । मेरे लिये तो सौभाग्‍य का विषय ये भी है कि उन सारी कविताओं को एक पुस्‍तक में ढालने का सुअवसर मुझे ही मिल रहा है । और जो कि मैं कई बार कह चुका हूं कि मेरेलिये तो सबसे बड़ी परेशानी चयन की है

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