अब नहीं संभव रहा है गीत कोई गुनगुनाना

कंठ में अवरुद्ध है स्वर होंठ पर आता नहीं है
अब नहीं संभव रहा है गीत कोई गुनगुनाना

कसमसाती उंगलियों से पूछती रह रह कलम है
किसलिये तुमने न चलने की उठा रक्खी कसम है
मानचित्रों में मिलेगी राह नूतन कोई तुमको
जान लो यह धुंध में डूबा हुआ केवल भरम है

कर समर्पण हो शिथिल जो रुक गये है मोड़ पर ही
शब्द को संभव नहीं है पॄष्ठ पर अब पग बढ़ाना

प्रश्न के उत्तर स्वयं ही प्रश्न बनने लग गये हैं
आईने अपने स्वयं के बिम्ब छलने लग गये हैं
झर रही केवल उदासी की झड़ी अब बादलों से
छोड़ कर नभ को अकेला, सब सितारे ढल गये हैं

पारदर्शी हो गये हैं आज वातायन निशा के
है नहीं संभव कोई परदा गिराना या उठाना

मौन की लंबी गली में और कितनी दूर चलना
और कितनी देर बन कर धूप का इक दीप जलना
एक अपने खोखले सिद्धांत के डमरू बजाते
और कितनी देर अपने अर्थ को है आप छलना

झुनझुने हम हो गये हैं आप अपनी ही नजर में
आपका क्या दोष, चाहें आप जो हमको बजाना

7 comments:

Udan Tashtari said...

मैं इस वक्त आपकी मानसिक स्थिती समझ सकता हूँ..अतः पूर्णतः सहमत हूँ आपके मनोभावों से. कई बार इश्वर के निर्णय भी अचंभित करते हैं मगर हम इंसानों के हाथ में क्या है, वह तो सीमित है.बस, यही सोच सकते हैं कि हमारे साथ ही ऐसा क्यूँ.

ईश्वर आपको शक्ति दे, यही मेरी शुभकामनाऐं है और जान लिजिये, मैं तो हर क्षण आपके साथ हूँ.

Anonymous said...

सम्मान्य, आपके ब्लॉग की प्रसंशा में शब्द नहीं मिल करे...बस इतना...अवर्णनीय....,अति सुंदर भावाभिव्यक्ति,सार्थक,समग्र सम्पादन....समर्पित रहिये.... आपके नवीनतम रचनाओं की सदैव प्रतीक्षा रहेगी...धन्यवाद

रंजू भाटिया said...

मौन की लंबी गली में और कितनी दूर चलना
और कितनी देर बन कर धूप का इक दीप जलना
एक अपने खोखले सिद्धांत के डमरू बजाते
और कितनी देर अपने अर्थ को है आप छलना

राकेश जी यही पंक्तियाँ मन की उस हालत को छू लेती है जब लगता है जिंदगी नीरस सी लगने लगती है पर वक्त एक सा नही रहता है .यूँ ही शब्दों का संसार रचते रहे और हम आपका लिखा पड़ते रहे यही दुआ है

Unknown said...

मौन की लंबी गली में और कितनी दूर चलना
और कितनी देर बन कर धूप का इक दीप जलना
एक अपने खोखले सिद्धांत के डमरू बजाते
और कितनी देर अपने अर्थ को है आप छलना

झुनझुने हम हो गये हैं आप अपनी ही नजर में
आपका क्या दोष, चाहें आप जो हमको बजाना

kya kahu.n ..bas bahut sundar

Manish Kumar said...

achchi lagi ye kavita , khaskar ant li panktiyan..waah

रंजना said...

शब्द ,भाव,शिल्प सब एकदम सुगठित.मर्मस्पर्शी अतिसुन्दर रचना.ईश्वर आपकी लेखनी को सुदृढ़ता प्रदान करें ........अबाध लिखते रहें.

डा ’मणि said...

वाह राकेश जी बड़े दिनों बाद किसी दम वाले रचनाकार से परिचय हुआ है , बधाई हो ...


और भी तिनके करोड़ों , जल रहे मेरी तरह
सबका मकसद एक , पानी भाप में तब्दील हो



इस धारा की गोद में नभ के सितारे भर सकें

दो हमें सामर्थ्य इतना पार सागर कर सकें

ना डरें हम आँधियों से ,ना डरें तूफ़ान से

कश्तियाँ चलती रहें हरदम हमारी शान से

जो कठिन हालात में भी अनवरत जलता रहे

हर किसी के द्वार पे हम दीप ऐसा धर सकें

दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें ......

हम मिटा पायें ह्रदय से हर घृणा को ,द्वेष को

हम बदल पायें जरा सा आज के परिवेश को

कर सकें हम स्नेह का संचार अन्तिम श्वास तक

जो दिखे पीड़ित -दुखित ,दुःख - दर्द उसका हर सकें

इस धारा की गोद में नभ के सितारे भर सकें
दो हमें सामर्थ्य इतना पर सागर कर सकें

डॉ उदय 'मणि' कौशिक

कोटा , राजस्थान

94142 60806


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