सबन्धों के चरणामॄत

वैसे गीत की भूमिका लिखना मैं कभी आवश्यक नहीं समझता परन्तु इस बार समीर भाई के आग्रह पर मात्र इतना लिख रहा हूँ कि इस गीत के आरंभिक छन्द के बाद के अंतरों में अनुप्रास का प्रयोग किया गया है.


सबन्धों के चरणामॄत का किया आचमन सांझ सवेरे
तुलसी पत्रों से अभिमंत्रित माना उनको शीश चढ़ाया
अंकुर फूटेंगे नव, बिखरेगा सौरभ मधुपूर्ण स्नेह का
आंखों के परदे पर सुधि ने बहुरंगी यह चित्र बनाया

लेकिन मरुथल की मरीचिका सा निकला नयनों का सपना
आस पिघलती रही कंठ में बन कर नागफ़नी के कांटे

अँगनाई के आशीषों से आल्हादित थी हर अरुणाई
संस्कॄतियों की सुरभि सांझ ने सुन्दरता के साथ पिरो ली
वहनशक्ति वसुधा की ओढ़े वक्ष विशाल रहा वॄक्षों सा
सहज समर्पैत हो संशोधित संकल्पों की साध समोली

लेकिन बंजर के सिंचन का तो प्रतिकार शून्य ही होता
नाम-जमा के समीकरण में हासिल हुए हाथ बस घाटे

समझौतों की सीमायें यों सन्दर्भों से सही नहीं थीं
आगत हो अनुकूल, आज का अर्घ्य दिया, अवगुण आराधे
पतझड़ के पीले पत्रों को पावन पुण्य प्रसादी माना
तॄप्त किय्र तप का तप लेकर तॄषित ताप के तप्त तकादे

लेकिन हर इक होम मंत्र का होता अंत सदा स्वाहा ही
चाह जहाँ थी ज्वार उमड़ते, आते रहे वहा< बस भाटे

पान किये पौराणिक पुस्तक के पॄष्ठों के प्रवचन पावन
धीरज धर्म धार्य होता है, हुई धारणा धूल धूसरित
शत सहस्र सौगंध समाहित सांस सांस में संबंधों की
अर्धसत्य हो गईं आदि से अंत आज तक जो थीं अंकित

भ्रम की धुंध सदा छँट जाती जब सूरज लेता अँगड़ाई
किन्तु आज जो घिरा कुहासा कटता नहीं किसी के काटे

मन को जो महकाता मेरे था माधुर्य महज मिथ्या था
दिन के दूध धुले दर्पण में दिखते हैं दैदीप्य दिलासे
आंखों के आंगन में जितने आमंत्रित अनुबन्ध हुए हैं
स्वार्थ संहिता से सिंचित वे सप्ताहों के सत्र सदा से

जिन्हें थोप देती है पीढ़ी, एक एतिहासिक ॠण कह कर
ढूँढ़ रहा हूँ कोई हो जो इसका अंश जरा सा बांटे

8 comments:

अमिताभ मीत said...

लेकिन बंजर के सिंचन का तो प्रतिकार शून्य ही होता
नाम-जमा के समीकरण में हासिल हुए हाथ बस घाटे

लेकिन हर इक होम मंत्र का होता अंत सदा स्वाहा ही
चाह जहाँ थी ज्वार उमड़ते, आते रहे वहा बस भाटे

क्या क्या लिखूँ यहाँ ? पूरा गीत ही ? ये गीत सुबह सुबह पढ़ लिया है ... मेरा तो दिन बन गया. कविराज ये केवल आप आप ही लिख सकते हैं ... बहुत बहुत शुक्रिया आप का आज सुबह सुबह ये गीत पढ़वा दिया.

Udan Tashtari said...

बहुत बहुत उम्दा और हमारा आग्रह मान लेने का बहुत आभार. अद्भुत प्रयोग है. आनन्द आ गया. नमन करता हूँ.

Anonymous said...

एक नमन पवन चंदन का भी स्‍वीकारें
बहुत खूब
आनंद आ गया
ऐसी रचनाएं यदा कदा ही पढ़ने को मिल पाती हैं।

Anonymous said...

कुछ कह पाने के लिये शब्द नहीं हैं

रंजू भाटिया said...

मन को जो महकाता मेरे था माधुर्य महज मिथ्या था
दिन के दूध धुले दर्पण में दिखते हैं दैदीप्य दिलासे
आंखों के आंगन में जितने आमंत्रित अनुबन्ध हुए हैं
स्वार्थ संहिता से सिंचित वे सप्ताहों के सत्र सदा से

आपके लेखन की बात ही अलग है राकेश जी ..बेहद सुंदर रचना है यह और जो पंक्तियाँ मुझे अपने दिल के करीब लगती है वह मैं आपको बता देती हूँ आपकी रचना में .लिखते रहे शुक्रिया

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

बहुत सुंदर! वैसे तो आप की हर रचना रस रंजित रहती ही है पर इस में जो अनुप्रास का प्रयोग है वह अद्भुत है। बधाई आपको इस सफल रचना पर!!

Dr.Bhawna Kunwar said...

लेकिन मरुथल की मरीचिका सा निकला नयनों का सपना
आस पिघलती रही कंठ में बन कर नागफ़नी के कांटे

बहुत ही खूबसूरत शब्दों का ताना बाना ...
बहुत-बहुत बधाई...

ललितमोहन त्रिवेदी said...

छंदबद्ध रचनाएं दुरूह होती जा रहीं हैं , आपाधापी के युग में इतने सुंदर गीत के लिए बधाई स्वीकारें !

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