बहते हुए समय की धारा ऐसे लेती है अंगड़ाई
संकल्पों के तटबन्धों के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं
पांखुर पांखुर बिखरा जाते सूखे फूल किताबों वाले
इतिहासों में गुम हो जातीं रातें स्वर्णिम सपनों वाली
सौगंधों की नव-दुल्हन को जो आशीष सदा देता था
टूट टूट बिखरा जाती है उस पीपल की डाली डाली
आशा की रंगीन बूटियां कभी कढ़ीं जिन रूमालों पर
संचित कोषों में उनके फिर धागे धुंधले हो जाते हैं
चांद सितारे हाथ बढ़ाकर मुट्ठी भरने की अभिलाषा
मरुथल में तपते सूरज को भी ललकार चुनौती देना
लगने लगता क्षणिक असर था वह उद्विग्न ह्रदय पर कोई
है यथार्थ से नहीं लेश भी उसका कोई लेना देना
दोष न अपना स्वीकारा है, दोष लगाते हैं स्थितियों पर
जिनके चक्रव्यूह में फ़ँस कर परिचय सारे खो जाते हैं
अनुष्ठान वह परिवर्तित करने को सारी परिभाषायें
कीर्तिमान कुछ नये बनाने का खुद को खुद का आवाहन
विद्रोहों के अंगारों से रह रह तपती हुईं शिरायें
खींच बुला लेना अम्बर पर जेठ मास में भीगा सावन
दर्पण की परछाईं में जो खींची जाती हैं रेखायें
उन सब के परिणाम घरौंदे बालू वाले हो जाते हैं
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
शिल्पकारों का सपना संजीवित हुआ एक ही मूर्त्ति में ज्यों संवरने लगा चित्रकारों का हर रंग छू कूचियां, एक ही चित्र में ज्यों निखरने लगा फागुनी ...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
7 comments:
बहुत सही, कविराज!!! गीतकार !! गजब, आनन्द आ गया.
बहुत सुंदर कविराज जी आपकी कविता ने मन मोह लिया है भाई लिखते रहिये धन्यवाद
बहते हुए समय की धारा ऐसे लेती है अंगड़ाई
संकल्पों के तटबन्धों के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं
satya hi to kaha hai ..!
आदरणीय राकेश जी,
अध्भुत रचना
दर्पण की परछाईं में जो खींची जाती हैं रेखायें
उन सब के परिणाम घरौंदे बालू वाले हो जाते हैं
इन पंक्तियों को सहेज कर रख लिया है।
***राजीव रंजन प्रसाद
आदरणीय राकेश जी,
अध्भुत रचना
दर्पण की परछाईं में जो खींची जाती हैं रेखायें
उन सब के परिणाम घरौंदे बालू वाले हो जाते हैं
इन पंक्तियों को सहेज कर रख लिया है।
***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत खूब। इस मधुर गीत के लिए आपको मुबारकबाद देता हूं।
वाह-वाह इस गीति रचना के लिये हार्दिक बधाई
Post a Comment