क्यों न कहो मैं गीत सुनाऊँ ?

क्यों न कहो मैं गीत सुनाऊँ ?
संभव नहीं छंद से टूटे शब्दों को सुर से गा पाऊँ


तुम्हें विदित है और मुझे भी सॄष्टि एक लय में है गतिमय
एक छन्द सा अनुशासित है नक्षत्रों तारों का विनिमय
बिन लगाम के रथ को घोड़े, ले जाते कब सही दिशा में
और योजनाहीन हुआ कब वांछित को पा लेना भी तय

आज तोड़ कर बन्धन फिरते हुए शब्द जो आवारा हैं
कितनी बार उन्हें मैं उनकी सीमा में चलना सिखलाऊँ

जाते जाते नई भोर से जो कहती हैं बूढ़ी रातें
उसमें छुपी हुई रहती हैं अनुभव की अनगिन सौगातें
लेकिन दंभ दुपहरी का उनको नकार कर कह देता है
अर्थहीन सब बीते कल के साथ गईं जो .बीती बातें

तब ऐसी उच्छॄंखलता को समझाने की कोशिश करता
सोच रहा हूँ आखिर कितनी देर और मैं समय गंवाऊं

गंध बदलती है क्या बोलो कभी कहीं शीतल चन्दन की
धारायें परिवर्तित होतीं कब जन्मों के अनुबन्धन की
बदले हुए वक्त की देते हैं दुहाई केवल अशक्त ही
दॄढ़ निश्चय ही तो सक्षमता होती है दुख के भंजन की

आज समर्पित होकर बैठे घुटने टेक और गर्वित हो
तुम बतलाओ क्यों उनकी प्रतिमा के आगे शीश नवाऊँ

4 comments:

Udan Tashtari said...

जाते जाते नई भोर से जो कहती हैं बूढ़ी रातें
उसमें छुपी हुई रहती हैं अनुभव की अनगिन सौगातें


--सुन्दर-अति सुन्दर. क्या बात है, वाह!!!बहुत बधाई.

पारुल "पुखराज" said...

आज तोड़ कर बन्धन फिरते हुए शब्द जो आवारा हैं
कितनी बार उन्हें मैं उनकी सीमा में चलना सिखलाऊँ

aksar aisaa hotaa hai....sundar rachnaa..shukriyaa

Anonymous said...

bahut sundar panktiyan hai,nice.

महावीर said...

वाह!
गंध बदलती है क्या बोलो कभी कहीं शीतल चन्दन की
धारायें परिवर्तित होतीं कब जन्मों के अनुबन्धन की
बदले हुए वक्त की देते हैं दुहाई केवल अशक्त ही
दॄढ़ निश्चय ही तो सक्षमता होती है दुख के भंजन की
बहुत सुंदर।

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