बस इतना तुम याद न आओ

शपथ तुम्हें है मुझसे लेलो मेरी खुशियाँ, मेरे जीवन
जी न सकूँ में बिना तुम्हारे, बस इतना तुम याद न आओ

खंजननयने, तुम्हें विदित है तुम आधार मेरे जीवन का
शतदलरुपिणी ज्ञात तुम्हें है, तुम हो कारण हर धड़कन का
मौन सुरों की सरगम वाली वीणा की ओ झंकॄत वाणी
तुम ही तो निमित्त हो मेरे शतजन्मों के अनुबन्धन का

शपथ तुम्हारी, वापिस ले लो अपने प्यार भरे आलिंगन
मैं निमग्न जिनमें हो जाऊँ, अब इतना तुम याद न आओ

गुलमोहर की अमलतास की छांहों में लगते थे डेरे
वे अतीत के क्षण रहते हैं अक्सर ही सुधियों को घेरे
उनकी सुरभि सदा महकाती है मन का सूना गलियारा
घोर निशा में दोपहरी में, ढले सांझ या उगें सवेरे

वे पल मैने सुमन बनाकर रखे किताबों के पन्नों में
उनको किन्तु नहीं पढ़ पाऊँ, अब इतना तुम याद न आओ

उंगली के पोरों पर दस दस बल में लिपटी हुई ओढ़नी
पगनख से हस्ताक्षर करती हुई धरा पर एक मोरनी
रह रह कर पुस्तक के पन्नों से उठती झुकती वे नजरें
हरी सुपारी वाली कसमें सहज उठानी, सहज तोड़नी

मेरी निधि से ले लो चाहे पीपल छाया, घनी दुपहरी
आँचल से मैं चंवर डुलाऊँ, बस इतना तुम याद न आओ

5 comments:

Udan Tashtari said...

वे पल मैने सुमन बनाकर रखे किताबों के पन्नों में
उनको किन्तु नहीं पढ़ पाऊँ, अब इतना तुम याद न आओ

--बहुत गजब, राकेश भाई. अति सुन्दर है पूरी रचना.बधाई.

काकेश said...

सुन्दर.

Mohinder56 said...

राकेश जी,
पुन: एक अत्यन्त सुन्दर रचना के लिये दिल की गहराईयों से आपको धन्यवाद व बधाई.

Unknown said...

तारीफ़ नहीं करना चाहती....शब्द महसूस कर सकती हूँ

कंचन सिंह चौहान said...

शपथ तुम्हें है मुझसे लेलो मेरी खुशियाँ, मेरे जीवन
जी न सकूँ में बिना तुम्हारे, बस इतना तुम याद न आओ

शपथ तुम्हारी, वापिस ले लो अपने प्यार भरे आलिंगन
मैं निमग्न जिनमें हो जाऊँ, अब इतना तुम याद न आओ


उंगली के पोरों पर दस दस बल में लिपटी हुई ओढ़नी
पगनख से हस्ताक्षर करती हुई धरा पर एक मोरनी
रह रह कर पुस्तक के पन्नों से उठती झुकती वे नजरें
हरी सुपारी वाली कसमें सहज उठानी, सहज तोड़नी

आपकी हर पंक्ति मन को छू लेती है।

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