शत शत नमन तुम्हें करता हूँ

कभी क्षीर वारिधि की शोभा, मधुसूदन की कभी दिवानी
कभी उर्वशी कभी लवंगी और कभी हो तुम मस्तानी

तुम्हें देख नीरज ने इक दिन लिख दी थी नीरज की पाती
तुलसी चौरे दीप जला कर देखा था करते संझवाती
पुरबा आकर फुलवारी में वे ही बातें दोहराती है
जो तुम चुपके से कलियों के कानों में आकर कह जातीं

खंड काव्य के सर्ग रहे हों या हो नज़्म किसी शायर की
शुरू तुम्ही से और तुम्हीं पर अंत हुई हर एक कहानी

ओ शतरूपे ! तुम्ही मांडवी, तुम्ही उर्मिला, तुम यशोधरा
भद्रे तुम श्रुतकीर्ति कभी हो, कभी सुभद्रा कभी उत्तरा
कलासाधिके ! नाम तुम्हारे चित्रा रंभा और मेनका
पल में कभी रुक्मिणी हो तुम,कभी रही हो तुम ॠतंभरा

स्वाहा, स्वधा, यज्ञ की गरिमा, वेदों की तुम प्रथम ॠचा हो
श्रुतियों में जो सदा गूँजती, तुम ही वह अभिमंत्रित वाणी

तुम हिमांत के बाद गुनगुनी पहली पहली धूप खिली सी
तुम वीणा के झंकॄत स्वर में जलतरंग हो घुली घुली सी
तुम अषाढ़ के प्रथम मेघ से जागी हुई मयूरी आशा
विभा शरद के शशि की हो तुम, जोकि दूध से धुली धुली सी

तुम अनंग की मधुर प्रेरणा, तुम तंद्रा से जागी ज्योति
पाकर स्पर्श तुम्हारा कुसुमित हो जातीं सुधियां वीरानी

तुम बसन्त की अगवानी में गाती हुई कोयलों का सुर
तुम झंकार, खनकता है जो शचि के पग में शोभित नूपुर
जागी हुई हवा की दस्तक से अँगड़ाई एक घटा की
भाव एक वह तुम, भरती है जिससे संकल्पों की आँजुर

हर स्वर हर व्यंजन भाषा का, है जीवंत तुम्ही से केवल
तुम्हें समर्पित, तुमको अर्पित, छंद छंद कविता कल्याणी

7 comments:

Udan Tashtari said...

वाह, राकेश भाई. यह रचना तो साहित्यिक धरोहर बनने लायक है. इसे तो संजो कर रखने लायक है. बहुत गजब, बहुत बधाई!!

Mohinder56 said...

"ओ शतरूपे ! तुम्ही मांडवी, तुम्ही उर्मिला, तुम यशोधरा
भद्रे तुम श्रुतकीर्ति कभी हो, कभी सुभद्रा कभी उत्तरा
कलासाधिके ! नाम तुम्हारे चित्रा रंभा और मेनका
पल में कभी रुक्मिणी हो तुम,कभी रही हो तुम ॠतंभरा

स्वाहा, स्वधा, यज्ञ की गरिमा, वेदों की तुम प्रथम ॠचा हो
श्रुतियों में जो सदा गूँजती, तुम ही वह अभिमंत्रित वाणी"

राकेशा जी
एक बार फिर इस सुन्दर रचना के लिये आप को ढेर सारी बधाई

Unknown said...

कविता बहुत बहुत सुंदर है....काश मेरे शब्दकोश में भी इतने शब्द होते....!!
पर शीर्षक नहीं पसंद आया....!!

इतना खूबसूरत लिखने पर ...हाँ आपको सादर नमन जरूर करती हूँ।

Anonymous said...

I think the title of this beautiful poem should be---TUM--

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

राकेश जी,
नमस्कार !

आपकी हर कृति बेजोड होती हैँ !
सुँदर, साहित्यिक कृति के लिख्नेवाले को
शत्` शत्` नमन !
मेरे शब्द कम पड जाते हैँ परँतु,भावनाएँ उनसे अधिक गहरी हैँ इसका विश्वास कीजियेगा -
स - स्नेह,
लावण्या

Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत सुन्दर रचना है राकेश जी बहुत-बहुत बधाई।

Dr.Bhawna Kunwar said...
This comment has been removed by the author.

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