एक अंकुर हुआ भोर का प्रस्फ़ुटित
यों लगा ये धरा जगमगाने लगी
रात को पी गई एक उजली किरन
इक नये रंग में ढल उषा सज गई
पंछियों ने कहा मुस्कुराते हुए
चांद ने बात जो थी दिशा से कही
झील में से उमड़ता हुआ, नीर को,
सूर्य, पिघला हुआ स्वर्ण करता हुआ
और दिन का टँगे कैनवस पर नया
चित्र रंगों में सजता सँवरता हुआ
खेत ने था पुकारा, महज इसलिये
पायलें गीत पथ को सुनाने लगीं
फूल की पांखुरी पर थिरकती हुई
रात भर जो पिघल कर बही चाँदनी
सातरंगी लिये तूलिका लिख रही
मलयजी गंध की इक मधुर रागिनी
घाट वाराणसी के सजग हो उठे
मंत्र के शब्द जीवंत करते हुए
और उन्नत ललाटों पे अंकित हुए
रोलियाँ और चंदन निखरते हुए
आरती, प्रज्वलित दीप की ज्योति के
राग के साथ स्वर को मिलानेलगी
शंख ने गूँज कर शब्द नभ पर लिखा
पट खुले मंदिरों के महाकाल के
कोशिशों में अगरबत्तियां-धूप हैं
लेख विधना के बदलें लिखे भाल के
उठ अजानें चलीं एक मीनार से
चर्च से सरगमें घंटियों की बहीं
ग्रंथसाहिब से उठती गुरुवाणियों
से सुगन्धित हुई नवदिवस की कली
आस्थायें जगी लेके संकल्प को
अपनी अँगनाई रसमय बनाने लगीं
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2 comments:
बहुत नहीं कहूँगा बस इतना ही---कि क्या बात है, राकेश भाई!! कोई शब्द नहीं आपकी व्यंजनाओं के लिये...अनेकों बधाई!!
ऐसे लगा जैसे शब्दों की तूलिका से चित्र जीवन्त कर दिया हो....बहुत बहुत सुन्दर!!
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