सर्दी, चाय की केतली और प्रत्यक्षा की टिप्पणी

नहीं छोड़ती स्याही चौखट कलम की
नहीं स्वर उमड़ता गले की गली में
लिखूँ कैसे कविता तुम्ही अब बताओ
घुले भाव सब चाय की केतली में

ठिठुर कँपकँपाती हुई उंगलियां अब
न कागज़ ही छूती, न छूती कलम ही
यही हाल कल था, यही आज भी है
है संभव रहेगा यही हाल कल भी

गये दिन सभी गांव में कंबलों के
छुपीं रात जाकर लिहाफ़ों के कोटर
खड़ीं कोट कोहरे का पहने दिशायें
हँसे धुंध, बाहों में नभ को समोकर

न परवाज़ है पाखियों की कहीं भी
न मिलता कबूतर का कोई कहीं पर
शिथिलता है छाई, लगा रुक गया सब
न कटती है सुबह, न खिसके है दुपहर

निकल घर के बाहर कदम जो रखा तो
बजीं सरगमें दाँत से झनझनाकर
हवा उस पे सन सन मजीरे बजाती
जो लाई है उत्तर के ध्रुव से उठाकर

न दफ़्तर में कोई करे काम, चर्चा
यही आज कितना ये पारा गिरेगा
पिये कितने काफ़ी के प्याले अभी तक
भला कितने दिन और ऐसा चलेगा

न लिखने का दम है न पढ़ने की इच्छा
ये सुईयाँ घड़ी की लगे थम गई हैं
मिलें आपसे अब तो सप्ताह दस में
ये कविता मेरी आजकल जम गई है

7 comments:

Dr.Bhawna Kunwar said...

सर्दी का जीता जागता वर्णन बहुत पसन्द आया। आप इतनी अच्छी सर्दी का आन्नद लीजिये और यूँ ही रचनायें रचते रहिये ताकि हम भी आन्नद लें सकें आपकी रचनाओं का।

Divine India said...

अच्छी रचना…!! बधाई!

Udan Tashtari said...

--बहुत खुब वर्णित किया सर्दियों का हाल. अब हम भी चाय पीने की तैयारी करें.

और एक बात-अब कलम, दवात, स्याही क जमाने गये, कृप्या सीधे कम्प्यूटर पर लिखें.

-रचना सुंदर बनी है, बहुत बधाई.

राकेश खंडेलवाल said...

समीर भाई
बर्फ़ इतनी गिरी, तार पर जम गई
और खंभों से वे टूट नीचे गिरे
ऐसा माहौल, कम्प्यूटरों को मिला
ओढ़ करके अँधेरा, सभी सो रहे
उंगलियां ठकठकाती रहीं कुंजियां
शब्द आकार पाया नहीं कोई भी
ले न कागज़ कलम का सहारा अगर
आप बतलाईये, फिर कवि क्या करे ?

Udan Tashtari said...

फिर आप का केस जायज है, आपको कलम, स्याही इस्तेमाल करने की अनुमति दी जाती है, जब तक ठंड का कहर कम नहीं हो जाता. :)

Pratyaksha said...

जमी हुई कविता
शब्द शब्द पिघलेगी
चाय की प्याली के
भाप संग पिघलेगी

खूब चाय कॉफी पियें , आपकी कविता तो यूँ ही अपने आपको लिखेगी ।

Anonymous said...

Itni barhiya laykya kahein, bas mast ho gaye parhkar , aur sameer ji ki tippani per jo aapne likha wo parh bahut maja aaya.

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