पूर्णिमा की बहन

ज्योत्सना का पहन कर हिमानी वसन
आई है पूर्णिमा की ये छोटी बहन
ओढ़ मुस्कान की चम्पई चूनरी
मेरी अँगनाई को आज महका रही

एक नीहारिका से पता पूछती
आई कर पार नभ की ये मंदाकिनी
व्क पुच्छल सितारे को कर साज,थी
राह भर गुनगुनाती रही रागिनी
तारकों में जगा रोशनी झिलमिली
मोड़ पर उनके कंदील रखती हुई
मुट्ठियों की झिरी से फिसलती हुई
रेत सी, हर दिशा में बिखरती हुई

गंध की ओस बन कर हवा में घुली
अर्थ मुझको बहारों का समझा रही

वो अजन्ता के दर्पण के प्रतिबिम्ब सी
भित्तिचित्रों से उतरी एलोरा लगे
बन प्रणेता रँगे फिर से मीनाक्षी
प्रेरणा शिल्प कोणार्क की, बन सजे
पारिजातों की कलियों की अँगड़ाई सी
रश्मि के चुम्बनों से उठी जागकर
चित्रलेखा की ओढ़ी हुई ओढ़नी
सोम लाया हो उससे जिसे माँगकर

उर्वशी मेनका और रंभा सभी
एक ही यष्टि में ढल,लगा आ रहीं

मन की आराधना के प्रथम मंत्र सी
हो प्रथम स्वप्न ज्यों प्रीत के गांव का
ब्रह्म-बेला तपोभूमि की पुण्य हो
हो या पर्याय रति के हर इक नाम का
भावनायें उमड़ती ह्रदय में मगर,
न विदित आदि क्या है, कहाँ अंत है
शब्द्कोषों में उपमायें वर्णित नहीं
कल्पना आज सॄष्टा की जीवंत है

आज भाषा, स्वरा,अक्षरा मूर्त हो
लग रहा सामने आ खड़ी गा रहीं

2 comments:

Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत खूबसूरत भाव हैं राकेश जी। बहुत-बहुत बधाई।

गंध की ओस बन कर हवा में घुली
अर्थ मुझको बहारों का समझा रही

Udan Tashtari said...

एक और खुबसूरत रचना के लिये बधाई. अब शतकीय रचना 'शतक स्पेशल' का इंतजार है ताम झाम के साथ. :)

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