सप्तपद के वचन

मोड़ पर ज़िन्दगी के रजत आभ में
रंग प्रणय के दिवस मुस्कुराने लगे
सामने आ गया स्वप्न बन कर विगत
सप्त पद के वचन याद आने लगे

सप्त नदियों का जल, फूल की पांखुरी
और अक्षत पुन: आंजुरी में भरे
कदली स्तंभों पे टाँगी हुई चूनरी
में बुने जा रहे स्वप्न के दायरे
यज्ञ की लपलपाती हुई ज्वाल से
दीप्त होता हुआ स्वर्ण मुख का कमल
इक निमिष में समाहित हुआ जा रहा
पूरा विस्तार जो चल है या है अचल

मंत्र के बोल आकर अधर चूम कर
प्रीत के गीत बन गुनगुनाने लगे
प्रेम के पत्र जीवंत फिर हो गये
फिर लिये जो वचन याद आने लगे

चाँद तारे उतर द्वार पर आ गये
चांदनी आई ढोलक बजाने लगी
फूल की पांखुरी में भरे ओस को
नभ की गंगा भी कुछ गुनगुनाने लगी
पारिजातों को ले साथ निशिगन्ध ने
गूंथे जूही के गजरे में कुछ मोगरे
शतदलों ने गुलाबों के भुजपाश में
प्रीत की अर्चना के कलश आ भरे

पूर्णिमा से टपकने शहद लग पड़ा
और गंधर्व खुशियाँ लुटाने लगे
रात घूँघट को अपने हटाने लगी
फिर से संकल्प सब याद आने लगे

भर गये फिर से कौतूहलों से नयन
झिलमिलाई पुन: स्वप्न की कामना
चित्र बन आ गया आज फिर सामने
थरथराते अधर का वचन बाँचना
रश्मि-गंधों में लिपटी हुई यष्टि की
काँपती, सरसराती हुई सी छुअन
कोमलांगी परस से संवरती हुई
एक उत्साह की होती उत्सुक थकन

दस दिशाओं से आशीष उमड़े हुए
दीप, नव राह पर आ जलाने लगे
पदतलीसे लिपट साथ जो थे चले
फिर वही याद मेरी सजाने लगे

नैन की कोर पर आ थिरकने लगी
प्रीत के पंथ की वह प्रथम यामिनी
दूधिया इक किरण, एक सुरभित अगन
इक नसों मे तड़पती हुई दामिनी
बात कंगन से करती हुई मुद्रिका
सांस परिचय परस्पर बढ़ाती हुइ
धड़कनों की खनकती हुई ताल पर
रात शहनाई अपनी बजाती हुई

भोर के पल ठिठक राह में रुक गये
दूर ही नीड़ अपना बनाने लगे
चित्र जैसे उतर आये दीवार से
याद के पॄष्ठ फिर फ़ड़फ़ड़ाने लगे

फागुनी रंग की चूनरी में बँधी
सावनी तीज की इक लहरिया घटा
ओढ़ अनुराग को ज्योत्सना आ गई
पूछ पुरवाई स मेरे घर का पता
वादियों में शिला से फ़िसलती हुई
गुनगुनी धूप चन्दन लिये आ गई
सुरमई सांझ भी मुस्कुराते हुए
देहरी पे खड़ी आरता गा गई

आठ दिक्पाल, सप्ताश्व रथ,दस दिशा
वर्ष की गिनतियों में समाने लगे
एक के बाद इक कामना में बन्धे
हीरकनियों में ढल जगमगाने लगे

उर्वशी से कभी जो पुरू ने कहे
जो शची को पुरंदर सुनाता रहा
चन्द्रशेखर उमा को बताते रहे
चक्रधारी, श्री हेतु गाता रहा
रीति की हर कथा में गुंथे जो हुए
सूर मीरा जिन्हें गुनगुनाते रहे
जिनके अनुबन्ध की रेशमी छाँह को
तुलसी चौपाईयों में सजाते रहे

भाव की मिल रही उनको संजीवनी
प्राण, वे शब्द सब आज पाने लगे
मौसमों की डगर पर खड़े देवगण
शीश पल के नमन में झुकाने लगे


फिर क्षितिज पर खड़े नव दिवस ने कहा
आओ अब इन पलों को सुनहरा करें
मिल रँगें हम अजन्ता एलोरा नई
साथ के रंग को और गहरा करें
फिर समन्वय के अध्याय खोलें नये
और नूतन पुन: आज संकल्प लें
वेद मंत्रों ॠचाओं को स्वर दें नये
इक नई आस्था की डगर पर चलें

प्राण की तंत्रियों में घुले प्रीत के
राग घुंघरु बने झनझनाने लगे
फिर से सिन्दूर साधों में भरने लगा
अग्निसाक्षी वचन याद आने लगे

क्रुद्ध मुझसे हुए व्याकरण के नियम

पॄष्ठ थे सामने मेरे कोरे पड़े
भाव कहते रहे कोई उनको गढ़े
क्रुद्ध मुझसे हुए व्याकरण के नियम
चाहते भी हुए, गीत लिख न सका

लेखनी शब्द की उंगलियां थाम कर
हाशिये के किनारे खड़ी रह गई
बून्द स्याही की घर से चली ही नहीं
अपनी देहलीज पर ही अड़ी रह गई
पत्र की अलगनी को पकड़ते हुए
झूले झूले नहीम अक्षरों ने जरा
और असफ़ल प्रयासों की थाली लिये
दिन दुबकता रहा, नित्य, सहमा दरा

शैल की ओट खिलते सुमन की व्यथा
पत्तियों पर गिरे ओस कण की कथा
धागों धागों पिरीं सामने थीम मेरे
बस मुझे ही सिरा कोई दिख न सका

तूलिका रंग लेकर चली साथ में
किन्तु पा न सकी कैनवस की गली
देता आवाज़ सावन को , अम्बर रहा
अनसुनी कर विमुख ही रहा वो छली
साध के इन्द्रधनुषी सपन धूप की
उंगलियों मे उलझ कर बन्धे रह गये
फ़ागुनी आस के बूटे, नीले हरे,
हैं अपरिचित यहाम पर सभी, कह गये

झाड़ियों से उगी जुगनुओं की चमक
मुट्ठियों से गगन की पिघलता धनक
थे अजन्ता के सपने लिये साथ में
चित्र धुन्धला भी लेकिन उभर न सका

शंख का नाद भागीरथी तीर से
गूँज कर बांसुरी को बुलाता रहा
कुंज वॄन्दावनी रास की आस में
पथ पे नजरें बिछा कसमसाता रहा
तार वीणा के सारंगियों से रहे
पूछते, रागिनी की कहां है दिशा
भैरवी के सुरों की प्रतीक्षित रही
अपने पहले प्रहर में खड़ी हो निशा

ताल पर गूँजती ढोलकी की धमक
नॄत्य करते हुए घुंघरुओं की खनक
काई सी सरगमों पर फ़िसलते रहे
स्वर अधूरा रहा, राग बज न सका

पहले अपनी सीमा देख

चन्दन गन्धों के अभिलाषी
अभिलाषा के ओ प्रत्याशी
नभ तक हाथ बढ़ा ले लेकिन पहले अपनी सीमा देख
राजतिलक हर बार नहीं बन पाती सागर तट की रेत

संयोगों से घटित बात को समझ न लेखा लिखा नियति का
संयोगों से एक दिचस के लिये मशक का चलता सिक्का
कहाँ काठ की हांडी बोलो चढ़ी आग पर आ दोबारा
हर इक बार नहीं बन पाता यायावरी सेज चौबारा

प्रगति पंथ के ओ उत्साही
ओ चौखट पर भटके राही
मरूथल में आ नहीं जान्हवी करती मस्तक पर अभिषेक
राजतिलक हर बान नहीं बनती है सागर तट की रेत

अर्थ, अर्थ के संदर्भों के बिना अधूरे रह जाते हैं
समझो पहले श्रुतियां और ॠचायें जो कुछ कह जाते हैं
परिभाषा की सीमाओं को बंधन में मत करो संकुचित
थिरक अधर की नहीं बताती,भाव ह्रदय का हर इक प्रमुदित

जप तप से विमुखे बैरागी
प्रीत विहीना ओ अनुरागी
दो मुट्ठी बालू से रुकता नहीं उमड़ते जल का वेग
हाथ गगन तक फ़ैला लेकिन पहले अपनी सीमा देख

दिवास्वप्न पानी में उठते हुए बुलबुलों से क्षणभंगुर
रागिनियों में बन्धा नहीं है,अंधड़ भरी हवाओं का सुर
चौपालों के दीपक बनते नहीं सूर्य कितना भी चाहे
काक न पाता कोयल का स्वर चीख चीख कर कितना गाये

ओ नभ के आवारा बादल
टूती हुई द्वार की सांकल
से घर की रक्षा करने की कोशिश होती नहीं विवेक
राजतिलक हर बार नहीं बन पाती सागर तट की रेत

कल्पना के किसी मोड़ पर

कल्पना के किसी मोड़ पर प्रियतमे
तुम खड़े हो, मैं ये जानता हूँ मगर
मानचित्रों में पहचान पाता नहीं
कौन सी है वहां तक जो जाती डगर

दुधमुंही एक भोली मधुर कामना
इक तुम्हारी सपन डोर पकड़े हुए
और सान्निध्य की चंद अनुभूतियां
अपने भुजपाश में उसको जकड़े हुए
बादलों में उभरते हुए चित्र में
बस तुम्हारे ही रंगों को भरती हुई
खूँटियों पर दिशाओं की नभ टाँग कर
तुमको ही अपना संसार करती हुई

पूछती नित्य उनचास मरुतों से यह
कुछ पता ? है कहाँ पर तुम्हारा नगर

रोज पगडंडियों पर नजर को रखे
वावली आस बैठी हुई द्वार पर
पल कोई एक यायावरी भूल से
ले के संदेस आ जाये इस राह पर
तो अनिश्चय के कोहरे छँटें जो घिरे
धुन्ध असमंजसों की हवा में घुले
कल्पना से निकल आओ तुम इस तरफ़
और संबंध के कुछ बनें सिलसिले

आस को आस फिर बदली उड़ती कोई
इस तरफ़ लेके आये तुम्हारी खबर

स्वप्न की पालकी ले खड़ी है निशा
तुम जो आओ तो वो मांग भी भर सके
ले कपोलों पे छितरी हुई लालिमा
रंग मेंहदी में फिर कुछ नये भर सके
पांव के आलते से रंगे अल्पना
और देहरी को अपनी सुहागन करे
कलियां वेणी की लेकर सितारे बना
साथ नीहारिकाओं के वन्दन करे

तीर को थाम कर पथ तुम्हारा तके
उठती आकाशगंगा में हर इक लहर

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...