मन व्यथित मेरे प्रवासी

मन व्यथित मेरे प्रवासी
आज फिर इस धुन्ध में डूबी हुई स्मॄति के किनारे
किसलियी तू आ गया है ? ओढ़ कर बैठा उदासी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

स्वप्न की चंचल पतंगों का अभी तक कौन धागा
खींचता है? चीन्ह है पाया नहीं हर रात जागा
पुष्प-शर सज्जित धनुष के छोर दोनों रिक्त पाये
बस छलावों में उलझ कर रह गया रे तू अभागा

किसलिये तू आस की कर ज्योति प्रज्वल है प्रतीक्षित
जानता है ले रही है वर्त्तिका भी अब उबासी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

बादलों की ओढ़नी को ओढ़कर आती बयारें
द्वार पर आकर कई जो नाम रह रह कर पुकारें
कोशिशें करता, कि उनकी खूँटियों पर टाँग चेहरे
एक मादक स्पर्श के पल से पुन: सुधियां संवारें

किन्तु सीमा चाह की हर बार होकर रह गई है
भोर के बुझते दिये की एक धुंधुआसी शिखा सी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

काल की अविराम गति में चाहता ठहराव क्योंकर
दूर कितना आ चुका है धार में दिन रात बह कर
इस तिलिस्मी पेंच में कुछ देखना पीछे मना है
सिर्फ़ चलना सामने जो पथ, उसी पर पांव धर कर

है असंभव जो उसी की आस में डूबा हुआ है
जानता है, है नहीं संभावना जिसकी जरा सी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

ढूँढ़ता सुबहो बनारस हर उगे दिन की डगर में
सांझ अवधी हो सपन ये देखता है दोपहर में
लपलपाती हर लपट में यज्ञ की स्वाहा तलाशे
और बुनता मंत्र-ध्वनियां शोर की इस रहगुजर में

इन अँधेरी स्याह सुधियों में खुला इक पॄष्ठ कल का
दीप्त सहसा कर गया है प्रीत की मधुरिम विभा सी
मन व्यथित मेरे प्रवासी

6 comments:

Udan Tashtari said...

"ढूँढ़ता सुबहो बनारस हर उगे दिन की डगर में
सांझ अवधी हो सपन ये देखता है दोपहर में
लपलपाती हर लपट में यज्ञ की स्वाहा तलाशे
और बुनता मंत्र-ध्वनियां शोर की इस रहगुजर में

इन अँधेरी स्याह सुधियों में खुला इक पॄष्ठ कल का
दीप्त सहसा कर गया है प्रीत की मधुरिम विभा सी
मन व्यथित मेरे प्रवासी"

--राकेश भाई, आपकी पंक्तियां तो उड़ा कर जाने कहां ले गई, बहुत सुंदर भावाव्यक्ति है.

अनूप भार्गव said...

वाह राकेश जी !
प्रवासी पीड़ा पर अब तक के पढे सर्वश्रेष्ठ गीतों में से एक ..
बधाई

Anonymous said...

प्रवासी मन की व्यथा से
मन देसी अकुलाया
प्रवासी अपने देश को लौटे
दुआ में शीश झुकाया
रंगी अवध की शामें देखे
खाए बनारसी पान
फिर मित्रों संग बैठ के छेड़े
मीठी देशी तान।

Pratyaksha said...

प्रवासी पीडा का बेहद सटीक विवरण । आपकी कलम में जादू है ।

Anonymous said...

राकेश जी प्रवासी रचना बहुत कुछ गयी शायद सभी प्रवासियों के मन का हाल...

Anonymous said...

"नर समझो म्रित हुआ वो, आत्मा जिसकी मर गई है"
एक बार तुमने कहा सो, बात यह मन घर कर गई है

किन्तु मेरी आत्मा जब, आँख खोले तो उस नगर में
बज रही हैं जहाँ घंटीयाँ, और होम होता हर डगर में

हर सुबह हो सजल नयना, वो बैठ गंगा तट निहारती
और मुनियों के संग संग वह मंत्र सभी है उच्चारती

हो सहचरी हर शाम से ही, मनमीत के वह संग अहो
है खेलती हर स्वप्न में फ़िर कैसी उदासी मित्र कहो

आत्मा बैठी देस में है संतुष्ट, नहीं ज्यों साधवी उपासी
तो गुरू फ़िर बोलिये क्यो कहूँ "मन मेरा है प्रवासी"

आ पहूँचा हूँ दूर बहुत, लेकिन, मन मेरा नहीं प्रवासी
मन मेरा नहीं प्रवासी, मन मेरा नहीं प्रवासी.......



रिपुदमन पचौरी

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