वक्त की कुछ हवायें चलीं इस तरह
स्वप्न के जो बने थे किले, ढह गये
ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार चलती रही
हम तमाशाई से मोड़ पर रह गये
दिन उगा, दोपहर, सांझ आई गई
रात आई न रूक पाई वो भी ढली
साध खिड़की के पल्ले को थामे खड़ी
कोई आतिथ्य को न रूका इस गली
पंथ आरक्षणों में घिरे, पग उठे
थे जिधर, तय हुआ फिर न कोई सफ़र
शेष जो सामने थीं वे गिरवी रखीं
और टूटी अधूरी थीं वे रहगुजर
साँस के कर्ज़ का ब्यौरा जब था लिखा
मूल से ब्याज ज्यादा बही में दिखा
जोड़ बाकी गुणा भाग के आँकड़े
उंगलियों तक पहुँच हो सिफ़र रह गये
सूर्य मरूभूमि में था कभी हमसफ़र
हम कभी चाँदनी की छुअन से जले
हम कभी पाँखुरी से प्रताड़ित हुए
तो कभी कंटकों को लगाया गले
हमने मावस में ढूँढ़े नये रास्ते
तो कभी दोपहर में भटकते रहे
पतझड़ों को बुलाया कभी द्वार पर
तो कभी बन कली इक चटखते रहे
चाहिये क्या हमें ये न सोचा कभी
सोचते सोचते दिन गुजारे सभी
क्यारियां चाहतों की बनाईं बहुत
बीज बोने से उनमें मगर रह गये
चाहतें थीं बहुत, कोई ऐसी न थी
जिससे शर्तें न हों कुछ हमारी जुड़ी
रह गईं कैद अपनी ही जंज़ीर में
एक भी नभ में बादल न बन कर उड़ी
हम थे याचक, रही पर अपेक्षा बहुत
इसलिये रिक्त झोली रही है सदा
हम समर्पण नहीं कर सके एक पल
धैर्य सन्तोष हमसे रहा है कटा
दोष अपना है, हमने ये माना नहीं
खुद हमारे ही हाथों बिकीं रश्मियां
द्वार से चांद दुत्कार लौटा दिया
कक्ष अपने, अँधेरों को भर रह गये
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2 comments:
Rakeshji bahut achi rachna ha aapko bahut bahut badhi.Aarmbh ki 4 panktiyan bahut hi pasand aai.Kunwar ji ki gajal ko pasnd karne ka bhi bahut bahut shukriya.
Dr .Bhawna
Rakeshji bahut achi rachna ha aapko bahut bahut badhi.Aarmbh ki 4 panktiyan bahut hi pasand aai.Kunwar ji ki gajal ko pasnd karne ka bhi bahut bahut shukriya.
Dr .Bhawna
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