गुनगुनाता नहीं
गीत पन्नों पे आकर उतरते रहे
मन ये मेरा उन्हें गुनगुनाता नहीं
किसके अहसास की है ये जादूगरी
शब्द बन आ रही है अधर पर मेरे
किसके ख्यालात की हैं ये रंगीनियाँ
चित्र बन छा रहीं पाटलों पे मेरे
किसकी महकी हुई साँस पुरबाई बन
है टहलने लगी मन की अमराई में
किसकी आवाज़ की बाँसुरी घोलती
कुछ सुधा, कुछ शहद आज शहनाई में
कोई है मेरे परिचय की सीमाओं में
कौन है ? किन्तु ये जान पाता नहीं
प्यार में प्यार का ढूँढ़ता रात दिन
शब्द से भी परे जो कोई अर्थ है
है कहानी सुनाता रहा अनगिनत
व्यक्त करने में स्वर किन्तु असमर्थ है
कुछ इसी भाँति की भावना उठ रही
है धुँये सी, बिछी घाटियों में कहीं
कुछ् दहकती हुई, कुछ गमकती हुई
कुछ अरण्यों के सुमनों सी हैं खिल रहीं
चाहती हैं कहीं कोई सन्दर्भ हो
भाव लेकिन कोई पास आता नहीं
रंग लेकर बसन्ती, सजे आ सपन
फागुनी,सावनी,कार्तिकी पूर्णिमा
नींद की देहरी पर भरे पयकलश
से छलकती रही रात भर ज्योत्सना
तूलिका ने किया श्रम अथक, भर सके
नक्श, चित्रों की रेखाओं में अर्थ के
तोड़ सीमा, नियम, सारी पाबंदियाँ
बन्द कर फ़लसफ़े भी सभी तर्क के
कर रहा दूर से ही इशारे मदन
पर कभी साथ में मुस्कुराता नहीं
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